सौंदर्यानुभूति | Sandaryanubhuti

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Sandaryanubhuti by विश्वनाथ प्रसाद - Vishvanath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पृष्ठ | सौन्दर्य कौर सौरदर्पानभति को देखते हैं तथा कल्पना-पअसूत के माध्यम से हमारे मानेस मे वस्तुओं की अभिव्यक्ति होती है 1 कत्पना-प्रसूत ज्ञान को ही क्रोचे विशेष-ज्ञान (पण) कहते ह ! इसी के कारण प्रकाश होता है । यही प्रकाश सौन्दयं है ¦ वस्तुजो को अभिव्यक्ति में ही प्रकाश और उस प्रकाश में ही सौन्दर्य होता है । कल्पता- प्रसृत ज्ञान से जब हमारे अन्त: में वस्तुओं की अभिव्यक्ति होती है तो उसका आकार-प्रकार नहीं होता । सौन्दर्य केवल अभिष्यक्ति है, रूप कदापि नहीं । काव्य के सौन्दर्य से अभिप्राय बस इतना ही है कि कल्पना मे उसके अर्थं की जो प्रतीति हो रही है वह सुन्दर है। क्रोचे का यह सिद्धान्त सौन्दर्य के विषय-गत पक्ष की अति है। वस्तु से सौन्दर्य इतना निरपेक्ष है कि कल्पना में भिलने वाली वस्तु के सौन्दयं मेभीवस्तु की प्रतीति एकदम नही होती । क्रोचे के इस सिद्धान्त की पौर्वत्यि मौर पाश्चात्य विचारक ने काकी भाली- चना की है । टालस्टाय उस कलाकृति को सुन्दर मानते हैं जो नैतिक-विवेक जाग्रत करे | जो कृति नैतिक-विवेक न जगा सके वह कदापि सुन्दर तहीं। रस्किन सौन्दर्ये को ईश्वरे की विभरूति मानते हँ । ईश्वर पूर्ण और सौन्दर्य की निधि है । इसी के प्रकाश से जगत की वस्तुएँ सुन्दर है। सौन्दये से हमे ईश्वर के कर्तापन का बोध होता है। सौन्दर्य मात्र इन्द्रिय-सुख मही अपितु आह्वाद उत्पन्न करता है | कीट्स ने सौन्दर्य और सत्य न्‍को एक रूप माना है 1 सुन्दर सत्य है और सत्य ही सुन्दर है । ऐसा इसलिए कि स्त्य चित्‌ का स्वरूप है । चित्‌ आह्वाद कारक है और सौन्दयं का भी परिणाम आ्धाद ही है । पाश्चात्य विचारको में फ्रायड औौर माक्सं के दृष्टिकोण भी विचारणीय है। फ्रायड यौन-व्यापार को सौन्दर्य का उत्पादक मानता है। इन्द्रियों के माध्यम से हमें जो सुख प्राप्त होता है उससे अधिक बह कला से प्राप्त होने बाले आह्लाद को महत्व नहीं देता । इस संबंध में ध्यान देने की सबसे बडी बात यह है कि प्रत्येक कलाकृति का प्रेरक यौन-व्यापार ही नहीं हीता। निराला जी की भिक्षुकः कविता का प्रेर्‌ क्या यौन-व्यापार है ? दसी प्रकार पटना के सचिवालय के सामने बनी सात शहीदों की मूर्तियों का प्रेरक भी यौन व्यापार नहीं हो सकता । ठीक यही बात कला से उत्पन्न होने वाले आनन्द के विषय मे भी है। जीवन के कार्ये-व्यापार मे इच्चियो के माध्यम से हमें जो सुख प्राप्त होता है ठीक वही कलासे भी नही प्राप्त होता । कलाकृति या काव्य से आनन्दोपलब्धि करते समय हम तदवत हो जाते हैं




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