प्राचीन भारतीय परम्परा और इतिहास | Prachin Bharatiya Parampara Our Itias

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Prachin Bharatiya Parampara Our Itias by रांगेय राघव - Rangaiya Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका स दक्षिण--अग्नि) समाज बढ़ा। (११८) फिर आगे [यततातेः- (यन्न 1-५८ऋ {वत} ] तथा वासंतयों (वसति--ढज्‌) द्वारा ज्ञात हुआ कि घर बने । यज्ञ बढ़ा। (१२५) फिर सभा वनी (१३०)) फिर समिति वसी (१३१)! फिर आमन्त्रण वना (१३२) इसके वाद राजा की उत्पत्ति हुईं। ऊपर का उद्धरण ही इस विषय को स्पष्ट करने को है । इसके वाद विराट पुरुप का पुरुप सूक्त मिलाकर देखना चाहिये और उसमें भी विराट का यही अर्थ प्रयुक्त करना चाहिये क्योंकि सहखसिर चरण वाले का तो वर्णन वहाँ पहले ही हो गया है, फिर उससे यदि विराट जन्मा तो इस विराट के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? मेरा कहने का! तात्पर्यं है कि आयं परम्परा ने इस बात को जीवित रखा है कि देवों में यह आदिम साम्यवाद था। देव थे यह शतपथ ब्रह्म में स्पष्ट है। कितु जब आये भारत में आये थे লন उत्तमें वर्ग समाज था । मनुष्य का विकास अग्नि की प्राप्ति से हुआ | अंगिरा देवों की अग्नि का प्रथम आविष्कर्ता था। भुगु का वंश जग्नि का प्रथम जविष्कर्ता था। देवों ने अंगिरा का गुण- गान क्यों किया ? क्योंकि अंगिरा देवों का मित्र था । भृगु वंश असुर पौरोहित्य भी करता था । (छेद में अग्ति के छिपने की कथा हैं। जब देवों ने उसे अंग्रिरा की सहायता से खोजा तं। अग्नि रोया। उसने रुद्र किया जिसके कारण उसका नामे रुद्र पड़ा । यह छिपने वाला अग्नि देवों का धन-गो आदि चुराकर भागा था। इस उपाख्यान को सायण ने तैत्तरीय से उद्धृत किया है । अग्नि घनद और दूत था । अग्नि धारायद्धविणोदाम्‌ (ऋ. वे. १ १.७. १ ५. ९६. मे ) हिलेन्नांट बच को बर्फ तथा इंद्र को सूर्य्य कहता था। क्या हम भी अग्नि को मनुष्य नहीं कहें ? महाभारत वनपर्यं २१७बां अध्याय इस पर स्पष्ट प्रकाश डालता ह : युधिप्ठिर ने पूछा--अग्नि ने वन के भीतर क्यों प्रवेश किया ? अंगिरा ने क्रसे उनका रूप रखकर देवताओं को ह॒व्य पहुँचाया ? अग्नि के होने पर भी उनके कई रूप होने का क्या कारण हैं ? १ १. शरत्वेना धर्मसंयुक्तां धमराजः क्ांशुभाम्‌ पप्रच्छ तनूरषि मार्कण्डेबमिदं तदा ॥१॥ युधिष्ठिर उवाच -- कोवमाग्निवनं यातः कयन्वयाप्यायिरापुनः नष्टेऽनौ हुव्यमवहदाग्निभृत्वा मह चुतिः ५१।। अस्ति त्वक एव वहुत्वे ञ्वास्य कर्मसु स्यते भगवन्‌ सवयेतदिच्छमि वेदितुम ॥३॥




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