अपभृंश - साहित्य | Aapbhransh Sahithya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अप भ्र श-विष॑यक निर्देश ५ किया है। काव्य-पुरुष के शरीर का' वर्णन करते हुए राजशेखर कहते हैं--- शब्दार्थो ते शरीर, संस्कृतं मुखं, प्राकृतं बहुः, जघनमपच्च शः, पेशाचं पादौ, उरो भिभम्‌ ॥ भ्र. २, प° & राजशेखर ने सस्क्ृत, प्राकृत और अ्रपश्र श॒ भाषाओं के क्षेत्र का' निर्देश करते हुए सकल मर भरु, टक्क श्रौर भादानक को अ्रपश्र श से मिलती-जुलती भाषा का प्रयोग करने वाला क्षेत्र घोषित किया है । १ एक. दूसरे स्थल पर सुराष्ट्र रौर चवण को श्रपभ्रश भाषाभाषी कहा है ।२ नमि साधु ( १०६६ ई० ) कान्यालंकार २ १२ पर टीका करते हुए काव्या- लकार वृत्ति मे लिखते है- तथा प्राङ़तमेवापश्च शषः स चा्यंरवनागराभीरग्रास्यावभेदेन त्रिधोक्तस्तन्चिरासा- थमुक्तं भूरिभेद इति । कुतो देशविशेषात्‌ । तस्य च लक्षणं लोकोदेव सम्यगवसेयम्‌ । नमि साधु अपश्र श को एक प्रकार से प्राकृत ही मानते हैं। अपने पुवेकालिकः ग्रथकारो के द्वारा निदिष्ट तीन प्रकार की अ्रपश्र श---उपनाग र, आ्रभी र और ग्राम्या--- का निर्देश करते हुए स्वीकार करते है कि अपभ्र श के इससे भी अधिक भेद द । इनकी दृष्टि में श्रपञ्न श को जानने का सर्वोत्तम साधन लोक ही है, क्योकि उस समय तक अप- अश लोक भाषा के रूप में प्रचलित हो गई थी । तमि साधु ने एक और स्थल पर ऐसा उल्लेख किया है--- भ्राभीरी भवापञ्च शस्था कथिता क्वचिन्मागध्यामपि दृश्यते । पु० १५ इससे प्रतीत होता है कि अपभ्रश काकोई रूप इस काल मे मगध तक फंल गया था श्रौर उसी की कोई बोली मगध में भी बोली जाने लगी थी । इसके अनन्तर मम्मट (११ वी शताब्दी), वाग्मट (११४० ई०), विष्णुधर्मोत्तर का कर्ता, हेमचन्द्र, नाट्यदपेण में रामचन्द्र तथा ग्रुणचन्द्र (१२ वी शताब्दी) और काव्य- लता परिमल में श्रमरचन्द्र (१२५० ई०) सब श्रपभ्रर को संस्कृत और प्राकृत की कोटि की साहित्यिक भाषा स्वीकार करते है । वाग्भट अपभ्र शा को देश भाषा कहते हैं--- श्रपञ्च श्चस्तु यच्छुद्ध॒तत्तदेशेषु भाषितम्‌ । वाग्भटालकार, २ ३ विष्णुधर्मोत्तर के कर्त्ता की दृष्टि मे देशभेदों की भ्रनन्‍्तता के कारण अपभ्र श' भी भतत्त है-- मतक १. वही, श्रध्याय १०, प° ५१, “सपनन च प्रयोगाः सकल मरभूवष्टक्कभावान कादच । २. वही श्रध्याय ७, पु° ३४।




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