ब्रह्मचर्य | Brahmcharya

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Brahmcharya  by श्रीचन्द रामपुरिया - Shrichand Rampuriya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ बंब'होता है भौर मदुभ्व घोर भौर दुस्तर संसार-सागर में गोते खाने छगता है।' इसडिय भनेके दोष पूर्ण शरीर-विभूषा को ब्रद्मचारी सेवन नहीं करता ।' ( १० ) काममोग-संयम : १४-मअझ्ाचा री शब्द, रूप, गंध, रस और स्पश--इन पाँच प्रकार के इन्द्रियों के विषयों का सेवन सदा के लिए छोड़ दे। देवों से लेकर समग्र छोक के दु:ख इन्हीं चिष्रयो छी भासक्ति से उत्पल्न दोते हैं। बीतराग, शारीरिक ब मान- सिक - सव दुःखों का, अन्त कर सकता है ।' जिस तरह स्वाद में सधुर लगने बाड़े और मनोहर किपाक फछ पचने पर भाखर प्राणो का शन्त करते ई, उसी तरह शुरू-शुरू मे अच्छे ओर भानन्ददायक माम पड़ने पर भी कामभोग परिणाम में ब्रद्मचारी के छिए घातक दोते हैं ।' 'वश्लु रूप को प्रहण करता दे ओर रूप चश्लु का प्राह्म-विषय दे । जिस तरह रागातुर पतंग दीपक की ज्योति में पड़ कर अकाल में ही मरण पाता है उसी तरह रूपमे भासक्त ब्रह्मचारी शोघदी अपने श्रह्मचये को खो बैठता है । कान शब्द को ग्रहण करता है ओर शब्द कान का विषय ै। जिस वरह संगीत में मूर्च्छित रागातुर दरिण बीघा जाकर अकाल में दी मरण पाता है उसी तरद्द शब्दों में तीत्र आसक्ति रखने वाला पुरुष शीघ्र ही अपने ब्रह्चचर्य को खो बेठता है | नाश गन्ध को प्रहण करता है ओर गनध नाक का विषय है। जिस तरह आषधि की सुगनध में आसक्त रागातुर सप॑ पकड़ा जाकर, अकाल में ह्वो मारा जाता है उसी तरह से द्युगन्ध मे तीव्र भासक्ति रखने वाखा ब्रह्मचारी शोघही अपने ब्रह्मनय को खो बेठता है । जिला रस को महण करती है और रस्त जिह्ला का विषय ই। जिस तरह मांस में आसक्त रागातुर मच्छली लोहे के काँट से भेद्दी जाकर अकाल में ही मारी जाती ह इसी तरह रसमें तीत्र मृच्छां रखने करा ब्रह्मचारी शीघ्र ह त्रह्यचयं को रो श्ेढता औ । ৭... হয়ত ६1६६३ २-~द० ६।६७ ;३- उत्त १६ श्ली० १०; इक्त० ३२॥१९; ४०-उततत० ২২1২০ ;




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