वेदोदय -भाग 4 | Vedodaya (Bhaag-4)
श्रेणी : धार्मिक / Religious, पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
46
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
गंगाप्रसाद उपाध्याय - Gangaprasad Upadhyaya
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विश्वप्रकाश -Vishwaprakash
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संख्या ५ |
०११0०७७७ ७०१० ००१००७० ॥०७१५००१०४ ०७९ ५७००००००५३१७१००७०७०७९०७ ७७११००१ ७४१००७५७य०१०९४
प्रिय बना लिया । वेद को मानना, यज्ञा
पवीत पहनना आदि आदि बाधाओें दूर हो
गई । उनके धर्म का द्वार इसाई, मुसल-
मान हिन्दू आदि सब के लिये खुल
गया | आर भ में इस समाज को वह
सवं प्रियता प्राप्त हु कि देवेन्द्र बाबू भी
दांत तल ऊँगली दबात रह गये | उनको
अपेक्षतः अपना समाज छोटा प्रतीत
होने लगा। उसके गिने चुन सभासद
रह गये । परन्तु उन्होंने निश्चय कर लिया
कि इस छोटे समाज को राजा राममोहन
राय के प्रदर्शित मागे पर चछाया जायगा '
केशव बाबू के साथियों न जो
पुरानी संगतसभा के युवक सदस्य थे
एक प्रचारक मंडल बनाना चाहा |
उन्होंने आत्म-त्याग का प्रण किया।
उन्होंने धन कमाने के व्यवसाय छोड़
दिय । हर एक सभा क दान पात्र
स प्रति दिन कुछ पैसे निकाल छता ओर
उसी से निव करता | आरम्भ में यह
लोग सात-आठ थे अब चौथीस-पश्चीस
हो गए । यह सब ऐसे धुन के थे कि
दिन भर स्वाध्याय और प्रार्थना तथा
धाभिक कार्यो में लगे रहते थे | एक को
फ़ फ़ड़े का रोग भी था और उसके पास
पहनने को कपड़े तक न थे। परन्तु
आत्मिक-उनच्नति की धुन में शारीरिक
कष्टो की कोरे परवाद्द नहीं करता था |
उनका सिद्धान्त था कि “कल को परवाह
मत करो ।” ऐसा आत्म-त्याग चाहे उसके
राममोहनराय, कंशवचन्द्रसन श्रौर दयानन्द
बै 9 व्रक्ि ठद >४ॐॐ५त ३९००००९० १३१७३१३७ ७४२०००० १०००४१०४ १०१०९०३१ १२०३० ००५९०१९द५/॥
सिद्धान्त केस भी हों संसार को आकर्षित
किए बिना नहीं रह सकता ।
परन्तु आत्म-त्याग भर अथाह
उत्साह के साथ द्वी मयोदित कार्ये-क्रम
(1)0111015 19198150010) भी चाहिए।
यदि कोई आचाय अपने शिष्यों से कह
दे कि “संसार तुम्हारा लक्ष्य है। चारों
ओर मार्ग बने हुए हैं। जिघर चाहो
दौड़ चलो ।” ता कोई कार्य सिद्ध नहीं
होने का । केशव बाबू कं इस नए समाजं
की यही अवस्था थी। इसका अनुभव
उनके अनुयायियों को तो न हुआ परन्तु
वह स्वयं इस त्रुटि का अनुभव करन
लगे । उनको देवेन्द्र बाबू जेसे अनुभवी
और बुद्धिमान पुरुष के परामश का
अभाव पीड़ा देने लगा। परन्तु अब हो
भी क्या सकता था। शअ्रब वह कलकत्त
से कुछ दूर पर अपने एक पेतृक बागरा में
एकान्त सेवन करने छगे । यकायक उनके
मन में म्फृत्त हुई और उन्होंने मा्चे
१८६६ ई० मे कलकत्ता मैडिकल-कालेज-
थिएटर में “इंसा-मसीद, यूरोप और
एशिया ()250১ (০177150) 10101)
000 3510 ) विषय पर एक प्रभावशाली
व्याख्यान दे डाला | इसके कुछ वाक्य
उद्धरण करना श्रत्यावश्यक है :--
(1) (1191 8 0011991706) 0৭
31021] 1710101 0011150) 100757560
71€8 0८11 ५5 10
{7 00101 7100
01160 2109100) ৪110 5५९७४ ०७०९
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