समय सार प्रवचन भाग 6,7,8,9 | Samyae Saar Pravchan Bhag - 6,7,8,9

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Samyae Saar Pravchan Bhag - 6,7,8,9 by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सपरयमार प्रवचन षष्ठ माम १२ 1 ग्रवस्थाका निमित्त पाकर पौद्पलिक्र कर्मवगेणावोमे कर्मत्वरूप परिणमत होता है मौर कर्मोदियक्ा निमित्त पाकर जीवविकार होता है पेस्ा परस्परये निभित्तनैभििक सम्बन्ध ह किन्तु कर्ता कोई किसी दूसरेका नहीं है । इस प्रकार ज्ञानी जोव ज्ञानका ही कर्ता है यह बताया गया है । = पड ७2०४5 हद 2 বু परे भ्रच्यापी होनेते जोवसें परका अकतृ त्व--जीव पर द्रव्यका न तो उपादानरूपसे कर्ता हे शोर न निमित्तभावसे भी कर्ता है । अच्छा तब फिर जीव किसका कर्ता है इसके उत्तरमे ये गाथाये चल रही दै । जीवदो प्र कार के हैं-एक शूद्ध उपादानवाला जीव, एक भ्रशुद्ध उपादाचवाल्ा जीव } जो भिथ्यात्व विधय रषायका त्याग करके निविकरत्प समाधिते स्थित हुआ जीव है वह शुद्ध उपादातवाला है ऐसा वोतराग स्वसम्वेदनज्ञानी जीव _ शुद्धनयसे भ्र्थात्‌ शुद्ध उपादानरूपसे शुद्ध ज्ञानका ही कर्ता है। वह जानता है कि कार्माण- बगेणाके योग्य पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणादिक द्रव्य कार्यरूप होते है पर जेब उनमे व्यापता चहीं है ) जैसे मिट्टीसे घड़ा बवता है तो घड़ामें भिट्टो व्याप्त है उसी प्रकार उन कमभि प्रास्मा व्यापत्ता चहीं हैं । और जैसे दध दहौ बनाने बाला ग्वाला केवल तटस्थ है जानन देखत हार दै, बह दूध दहीमें कुछ नहीं करता है | इसीअ्रकार यह जीव भी श्रते प्रदेशोंस बाहर किसी भी परद्व्यमें कुछ करता वहीं है, ऐसा जो जानता है, और जानता ही नहीं, ऐसा जानकर परसे उपेक्षाभाव करके विषय कषायके त्याग पृवंक निज लिवि- कल्य समता परिणास्र॒ में रहता है, वह शुद्ध उपादासरूपसे शुद्ध ज्ञाब परिणामका हौ कर्ता है । | ২. दृष्टान्तपुरवेक ज्ञानीके शुद्धभावक तृ त्वकी सिद्धि जैसे कि स्वर्ण किसका कर्ता है ? क्‍या स्वण स्वर्ण पहिलनेवाले पुरुषके हर्ष परिणामका भी कर्ता है ? स्वर्ण तो अ्रपते ही कलेवरसें रहनेवाले तत्त्व श्रादिका ही कर्ता है। श्रग्ति किसका कर्ता र? क्या अग्नि भोजन कराकर मौज बचानेका कर्ता है | अग्ति अपनेमें उष्ण आादिक गुणोंरूप बसी रहे, परिणसती रहे इतनी मात्र भ्रस्तिकी करतूत है 1 छिद्ध परमेष्ठी किसके क्त है ? अनन्त शान, अनन्त दर्शन, भ्रतत्त मुख, अनन्त शक्ति रूपसे परिणमते रहें इसके हो कर्ता है । इशोप्रकार यहां का यह ज्ञाचो पुरुष भी सब ज्ञानस्वरूपको ज्ञावसें ले रहा है उस समय উদ नह ह भोकतृत्व हैं। इसप्र कार ज्ञानी व ह ই না ^ ही कर्ता है यह सिद्ध किया यथा है । अब दूसरे प्रकारका जीव जो कि अज्ञानी है उसके सम्बन्धमें प्रइन होता है, कि अज्ञानी तो श होगा ना ? उसका विवेष करते हुये कहते हैं कि परका जज्ञादी भी कर्ता नहीं है ।




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