श्रमणोपासक (रजत जयन्ती) | Shramano Pasak (Rajat Jaynti )
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
409
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अमृतवाणी
आचार्य श्री नानाछालजी म. सा
का सम्पादित प्रवचन
निर्ग्रन्थ-संस्कृति और शांत कान्ति
आज का यह दिवस वीतराग देवो की निग्र॑न्थ सस्कृति की पवित्र/पावन अ्रवस्था
का प्रतीक है । क्योकि करीब पच्चीस वर्ष पूर्वे झ्राज ही के रोज, शांत क्राति के जन्मदातास्व
गणेशाचार्य ने एक बार फिर से शात क्रांति के रथ को जोश एवं होश के साथ आगे बढाया
था । पवित्र श्रमण-संस्कृति के बुभते दीपक में तेल डालकर उसे अ्रधिकाधिक रूप से
प्रजजलित किया था । एक शिक्षा-दीक्षा-प्रायश्चित व चातुर्मास को पूर्णं क्रियान्विति के साथ यह
रथ गतिमान हृश्रा था । यद्यपि उनके सामने वीहड़-जगर एव कंटकाकीणं पथ श्राया, तथापि
उस महापुरुष के सत्साहस के सामने सब पार होता चला गया । भ्राज हम जिस शुश्र प्रकाश एवं
शीतल छाया की अनुभूति कर रहे है, वह सव उन्ही के द्वारा कृत साहसिक शात-क्रांति की देन है ।
ग्राज के इस उत्साहप्रद प्रसंग पर लेखकों और कवियों ने अपनी शुभ भावनाओं
का प्रकटीकरण किया है । उन भावनाओं को जरा गहराई से श्राप भी अपने अन्त करण मे
उतारे एवं निग्नेन्थ श्रमण सस्क्ृति के भव्य स्वरूप को ध्यान मे ले तो इसकी सुरक्षा के प्रति
कटिबद्धता आपके हृदय में भी जागृत हो सकेगी ।
दो बीज, राग-हूंष :
आ्राज ट्वितीया तिथि है । दूज को जो चन्द्रमा उदय होता हैं, वह श्रपनी कलाश्रो
को श्रभिवृद्ध करता हुआ पूर्ण चन्द्र का स्वरूप ग्रहणा करता है । आज की यह सामान्य शुक्लता
शीतल तेजस्विता को धारण करती हुई पूणिमा के दिन पूर्ण शुक्लता को प्राप्त होती है। ठीक
इसी प्रकार द्वितीया का वहु दिवस भी निग्नेन्थ श्रमण सस्क्ृति रूप चन्द्रमा की कला को निरन्तर
विकसित करता गया है । तभी तो गत पच्चीस वर्ष की सुदीधे यात्रा ने वीतराग सिद्धातों को
जन-जन तक पहुचाने के भगीरथ काये मे एक महत्वपूरण भूमिका प्रदाकर जनमन को सुखद प्रकाश
से आलोकित किया है ।
आत्मस्वरूप को जानने के लिये यह एक निमित्त है, जिससे आंतरिक विक्रतियों
का पता छगावे और आत्म-शुद्धि का प्रयास प्रगतिशीरू हो । वस्तुस्थिति की हृष्टि से चिन्तन
करे तो स्पष्ट रूप से विदित होगा कि झात्मकल्याण का जो मार्ग बीतराग देवो ने प्रशस्त किया
है, वही मार्ग महत्वपूर्ण, शुद्ध एव पवित्र है। यह ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर प्रत्येक भव्य--
प्राणी अपनी अन्तब्चेतना के विकास के साथ अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता हैं ।
आत्मा की शुद्धि मे तथा इस आत्मशुद्धि के चरम विकास में बाधक तत्वों की दृष्टि
से दो मुख्य तत्व बताये है और वे हैं राग और दष । उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर ने
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