सत्यनारायण ग्रंथावली | Satyanarayan Grathawali

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Satyanarayan Grathawali by विद्यानिवास मिश्र - Vidya Niwas Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १७ के क्षेत्र मे ऋतिकारी आदोलन का सूत्रपात हुआ। राजा राममोहन राय ने विविध धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और उसे पृष्ठभूमि बनाकर ब्राह्म- समाज के रूप मे उन मान्यताभो की प्रतिष्ठा की, जो उनके भनुसार हिंदू धर्म की मूल ओर विशुद्ध मान्यताएं थी । उनकी प्रेरणा से वज्ञानिक सम्यतताका स्वीकार आधुनिक भारत की एक प्रमुख विशिष्टता ই। यहां से लेकर सन्‌ १६२० तक ऐसी भूमिका तैयार होती है जो पहले से कही उदार और व्यापक है | इस भूमिका के निर्माण मे केशवचंद्र सेन, दयानद सरस्वती और विवेकातद का विशेष योगदान दिखाई पड़ता है। सेन परद्चिमीकरण पर बल देते थे । दयानंद सरस्वती पर्चिमीकरण का त्याग ही उचित नही समझते थे, अपितु वेदो को सर्वोपरि तथा ईइवरीय ज्ञान घोषित करते थे । विवेकानद ने बेदात के आध्यात्मिक ज्ञान को पश्चिम मे फैलाकर सिद्ध कर दिया कि भारत पराधीन और व्यक्तित्वहीन राज होते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोपरि है। दूसरी ओर प्रजातंत्र के आदरशे, समानता, बधुत्व और विज्ञान के पाश्चात्य प्रदेय को ग्रहण करने पर बल दिया । इस प्रकार विवेकानद ने ऐसे नये भारत की कल्पना की जिसका स्वरूप पूर्व और परद्िचम के सम्यक्‌ योग से निष्पन्न है। ये तीनो दुष्ट्या सामयिकं स्थितियों की मानसिकता व सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं। हीनता-बोध से उबरने के लिए ये तीन रास्ते सुझाती थी । हीनता से मुक्ति पाने का एक उपाय यह है कि हीनता-बोध को जगाने वाली शक्ति के समान ही बना जाए। सेन के पश्चिमीकरण के मूल में यह दृष्टि थी । दूसरा उपाय हीनता-बोध जगाने वाली शक्ति से नितात असपृकक्‍्त रहूकर अपनी विशिष्ट सत्ता, अप्रतिम शक्ति और क्षमता को सिद्ध किया जाए, इस पर बल देता था । दयानद सरस्वत्ती की यही दृष्टि थी । ये दोनो दृष्टिया आत्मशुन्चता ओर पराडमुखता की कमजोरियो को लिए हुई थी । अनुकरण और नकार दोनो ही जीवन के विकास की क्षमता से रहित होते है । तीसरी दृष्टि विवेकानंद कौ समन्वयवादी दृष्टि थी, जिसमे यथाथं की स्वीकृति सन्निहित थी । यहे दृष्टि समग्र ओर सा्थेक थी । इन दृष्टयो ने भारतीयो को रूढिवाद से स्वतंत्र चितन कौ बोर अग्रसर किया हीनताबोध से मुक्ति दिलाकर आत्मविश्वास जगाया ओर परपरा के आवदयक रिक्थ को युगके अनुरूप ভালা ओौर ग्राह्य बनाया । इस जागरण युग मे महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर, स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहस और थियोसोफिकल सोसादइटी के कायेकर्तामोने भी विचारणाए प्रस्तुत की । लिक्षा के परिचमीकरण ने चितन के नये आयामो को खोल दिया । इन सबसे स्वतंत्रता, साहूसिकता और नयी उपलब्धियों के लिए सुदृढ आधार-भूमि




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