आचार्य नरेन्द्र देव | Aacharya Narendra Dev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डेलोगेट थे । मैं भी उनके साथ गया था। उस समय के ठेलीगेट का वैज होता था कपडे का फूल । मैंने भी दरजो से वैसा ही एक फूल बनवा लिया और उमको लगा कर अपने चाचाजात भाई के साय “विजिटर्म गैलरी” मे जा बैठा । उम्त जमाने में प्रायः भाषण अग्रेजी मे हो होते थे और यदि हिन्दी में होते तव भी में कुछ ज्यादा न समझ सकता । ऐसी अवस्था में सिवा घो रगुल मचाने के मैं कर ही क्या सकता था। दर्शको ने तग आऊर मुझे डाटा गौर पदाल में भाग कर में वाहर चला आया। उस समय मैं कार््रेस के महत्व को क्या समझ उकता था। কিন্তু বলা में जान सक्षा कि लोक्मान्य तिलक, भी रमेगचरद्र दत्त भौर जस्टिस रानाई देज के बडे नेत)ओं में से थे। इनका दर्शन मैंने प्रथम ब।र वही किया । राताडे महाशय की तो सन्‌ १९०१ में मृत्यु हौ गयी । दत्त महौयय का दन दोबारा सन्‌ १९०६ में कलकत्ता कांग्रेस के अवसर पर हुआ | मैं सन्‌ १९०२ में सकल में भग्ती हुआ । सन्‌ १९०४ या १९०४ मे मैंने थोडी वगता चली भीर मेरे अध्यापक मुझकों क्ृ,त्तवाम की रामायण सुनाया करते थे। पिता जी दा मेरे जीवन पर वडा गहरा असरपदछा । उनकी सदा क्षिक्षा थी कि नौकरों के साथ अच्छा व्यवहार फ्िया करो, उनको गात्ती गलोज ने दो । मैंने इम शिक्षा का सदा पालन किया। विद्याथियों में मिगरेट पीने को बुरी प्रथा उत्त समय भी थी । एक वार मुझे याद है कि अयोध्या में कोई मेला था। मैने शोकिया सिगरेह की एक डिविया लरीदी। प्रिगरेह जलाकर जो पहला कप च्ीचा तो सिर घूमने लगा। इलायची पाल खाने पर तबियत सभली । मुझे आदचयय हुआ कि लोग क्यो सिगरेट पीते है। मैने उस दित से भाज तक धिगरेद नही षुभ । हौ, श्वास के कष्ट को कम करने के लिए कभी-कभी स्टेमोनियम के सिगरेट पीने पड़े है । मेरे पिता सदा आदेश दिया करते प्रे कि कभी झूठ न बोलना चाहिये। मुझे इस सम्बन्ध में एक घढना याद आती है। ई बहत चोदा था। कोई सज्जन मेरे मामू को पूछते हुए आगे। में घर के अन्दर गया । मामू से कहा कि आपको कोई बाहर बुत्ता रहा है। उन्होने कहा कि जाकर कह दो लि घर मे नही है। ति उनमे यहं सदेश ज्यो का त्यो कह दिया । मेरे भाभू बहुत नाराज हुए। मैं अपनी सिधाई में यह भी ने समझ सका कि मैते काई अनुचित काम किया है। इससे यह नतीजा न मिकालें कि मैं बडा सत्यवादी हू किन्तु इतना सच है कि मैं झूठ कम वोलता उत्कप | १५




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