नागरी प्रचारिणी पत्रिका | Nagaripracharini Patiika

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Nagaripracharini Patiika  by शिवनाथ - Shivnath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्दुः को हकीकत कया ই ६१ শু ঈ ছল হ্যা को ध्यान में रखकर देखे तो पता चले कि शाद ने शाइजद्दानाबाद का नास क्यौ उद्‌-ये-मुर्अल्ला रखा ओर क्यों मुगल बादशाईं! की टकसाल्ष उद्‌ में भी रहती थी । यहाँ तक कि जहाँगीर का एक सिक्का सन्‌ १८९९ ई० में काशोपुर ( नैनीताल ) में ऐसा मिला जिसकी टकसाल का नाम उदू दर राहे दकन” है | 'उद की जबान' में इसकी चर्चा इतनी की ग़ई है कि फिर उसको दोहराने से कोई लाभ नहीं, नागरी-प्रचारिणी-सभा, काशी से मँगा कर कोई भी उसे देख सकता है। प्रसंगवश बताना है कि “डद्‌” के इतिहास से जो लोग अभिन्न हैं उनकी दृष्टे में 'शाहजदहानाबाद' का “ददू-ये-मुअल्ला” नाम भी वैसा ही है जैसा 'काशगर! का उद्‌-ये-कंद”ः अथवा “कराकुरम” का जैसे “उदू-ये-बालिग” | आप वाहे “उदू -ये- मुश्रल्ला' को लँ चाहे 'उद्‌-ये-कंद! को और चाहे “उद्‌ -ये-बालिगः को, सभी के मूल में बही छावनो बोल रही है और सभी पुकार कर कहते हैं कि क्रपा कर हमें शेष छावनियों या उदुओं से कुछ अलग सममो--उनसे बढ़ा मान लो । मानने में कुछ क्षति भी नहीं | ईंट का न सही लाल पत्थर का सही, पर है तो मूल में वही बात ? আন্ত, हमारा कहना है कि उद्‌-ये-मुअल्ला रौर उदू का लगाव “दरबार” से जितना ই उतना 'घरबार' से नहीं। फल्तः 'उ् की जवानः या उदू भी जितनो ुगल्षो' है उतनी हिंदी नहीं। कौन नहीं जानता कि 'मुगल”' बनने की जितनी चिता ्गरीले शाहजहाँ को थी उतनी न उसके बाप जहाँगीर और न उसके बाबा अकबर को ही थी । बह सभी प्रकार से अपने को अमीर तिमूर का बच्चा सिद्ध करना चाहता था और जी से चाहता था कि उस भूमि का भी सम्राट बने जिसका अमीर तिमूर था। पर उसके भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया । बह नाम मात्र को दही 'साहिबे किरानः रह गया। ओर उस संकट से उसकी सेना का उद्धार [कथा मिरजा जयसिंह ने हो । बिद्दारी सा रसीला कथि किस उल्लास में कह जाता है-- घर घर तुरकिनि हिंदुनी देति असीस सराहि | पतिनु राखि चादर-चुरी तें राखी जयसाहि ॥ कारण-- यौ दलं कदे बलकं तै तँ जयसिंह सुबाल । उदर अधासुर के परे ज्यों हरि गाइ-गुवाल ॥ कितु खेद का विषय है कि आज उस “अघासुर” से उद्धार करनेवाला कोई हरि नहीं, जयसिंह नहीं । आज का मोहनदास कमचंद तो चंद लोगों की बातों में आकर किसी ताराचंद और किसी सुंदरलाल की बातों मे फँसकर सब को उसी डदू का दास बनाना चाहता दे जो उसी उददू-ये-मुअल्ला में बनी है जिसका निर्माण प्रजा का खून चूसकर हुआ है भौर जो आज भो लालकिले के रंग में फूटकर तढ़प रहा है । यदह भावना नहीं भूव इतिहास को बात दे कि रुपया तदसीलने मँ शादो जितना




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