संस्कृत काव्यके विकासमें जैन कवियोंका योगदान | Sanskrit Kavya ke Vikas mein Jain Kaviyon Ka Yogdan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो शब्द १५ अतुर्थ परिवर्तमें हृतरमाभान्त महाकाव्योंके क्रममें धर्मशर्माम्युदय, नेमिनिर्वाण, जयम्तविजय, प्मातन्‍्द और नरतारामंणानन्द महाकाव्योंका परिक्षीलन प्रस्तुत किया गया है । इस परिवर्तकी प्रमुख विशेषता उपमानोंके वर्गीकरण और चयनको है। भपरस्तुर्लोका स्रोतमृरक विदकेषण करते हुए अग्नि, अन्धकार प्रकाश, शस्तरास्व, आशा, प्रसाधन सामग्री, अंगोपांग कोटपतंग, खतिज-घातु, गृहोपकरण, ग्रहु-नक्षत्र, जलणर, जगली परु, विक्‌, देश, दिग्य-पुरुष, दिश्यपदायं, घार्मिक वस्तु. नर-नारी, नृप-ममात्य, पयोद, पर्वत, पक्षी, पुष्प-पर्लव, रोग, गोषधि, लता, वुक्च वीषष, सभृद्र, सरोदर, सरोसूप, पुराण, वाङ्मय आदि चौंतीस वर्गो्मे विभक्त किया है । काव्यात्मक अनुशी लम- को दृष्टिसे इस परिवर्तमें कई विद्येषताएँ प्राप्त होंगी । पंचम परिवर्तमें सरघान और एेतिह्ाधिक महाकाम्योके अघ्ययनके साथ अभि. लेलीय काव्योंका भो परिशीलन किया गया है। इस परिवतंमें काव्यात्मक अनुचिन्तनके साथ ऐतिहासिक मूल्योंकों भी स्थापना को गयो है। ऐतिहासिक और अभिषेखोय काब्य रसोद्बोधनकी दृष्टिसे जितने महत्त्वपूर्ण होते हैं, उससे कही अधिक ऐतिहासिक दृष्टिसे । कवि ऐतिट्वासिक तथ्योंकी योजना संवेदताओं और भावनाओके परिपाएव में करता है, जिससे ऐतिहासिक तथ्य भी रसात्मक रुपमें परिणत हो जाते हैं । षष्ठ परिवर्तमें एकार्थ, लघु, सन्देश, सूक्ति एवं स्वोत्र-काग्योका परिकीरन किया गया है। छत्रचूडामणि, पार्श्वोम्युदय, यशोघधरचरित, महोपालचरित, जैनकुमार- सम्भव, नेमिदृत, पवनदूृत, शोलदूत, सूक्तिमुक्तावलो, सुमाषित रत्नसन्दोह, भक्तामर- स्तोत्र, एकोमाव, विषापहार, कल्याण मन्दिर, भूपार चतुविशतिका एवं वैराम्यक्षतक आदिके काव्यात्मक मूल्योका उद्घाटन किया गया है । सप्तम परिवर्तमें संस्कृत जैन काब्योंमें प्रतिपादित सौन्दर्य, जीवनभोग दार्शनिक और धामिक विचारधारा, आध्यात्मिक अनुभूति, सस्कृति और सामाजिक जीवन तथा आधिक और राजनीतिकं विचार एवं कला-कौशल आदिका अध्ययन किया है । इस प्रकार इस ग्न्यमें जैन संस्कृत काव्योका सर्वांगीण अध्ययन करनेका प्रयास किया गया है। इस प्रयासमें कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई है, यह तो सुधोवर्गके ऊपर ही छोड़ा जाता है । पर हस प्रयासमें जिन महानुभावोंसे सहयोग प्राप्त हुआ है, उनके प्रति हादिक आभार व्यक्त करना अत्यावश्यक है। सर्वप्रथम में अपने निदेशक डॉ. श्रो हीराछाकूजो जैनके प्रति लतमस्तक हूँ, जिनकी मावयित्री और कारपयित्रो प्रतिभासे मुझे संबल प्राप हेमा भौर यहं प्रयास सरल हो सका । अतः मैं पुनः-पुनः परम श्रद्धेय डॉ. जैनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हैं । प्रकाशनका श्षेय भारतोय ज्ञानपीठ काशीके अधिकारी एवं उसके सुयोग्य মন্দী श्रो बाबू लक्ष्मोचन्द्रजी जैनको है, जिनको महनोय अनुकम्पासे यह शोध-प्रबन्ध जिज्ञासुओंके समक्ष प्रस्तुत हो रहा है । बन्धुवर श्रो डॉ० गोकुलचन्द्रजो जैनको भी नहीं




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