अहिंसा | Ahinsa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १४ | प्राण को अत्यन्त दुखी देखकर चिषर द्वारा मार दिया या किसी से मचा दिया, तब एम यठ़ी सोच कर शान्त छोजाते हैं कि बेचारा दुर्खों से छूट गया । किन्तु उस समय हम यह भूल जाते हैं कि देद का नाश होता है देी का नहीं होता । वह पुन दूसरा शरीर 'घारण कर से हो था उससे भी अधिक भयानक दुःख भोगता है। एसी दशा में हमने उसके प्राण लेकर कोई पराथ न्दींकिया किन्तु स्वाथ दी साधा है, क्योंकि उसकी वेदना अनुभव करके हमारे चित्त में जो दारुण दुख होता था हम उसे उन नहीं कर सकते थे, अतः एमने उसके प्राण अपना दुःख दूर किया--न कि उसका । कहावत प्रसिद्ध है-- “जब तक सँसा, तब तक आसा' । क्या कोई पिता, जीवन से निराश होने पर भी अपने पुत्र के प्राण विष द्वारा ले सकता है ? कोई कोई उसे केस देखने में आते हैं कि जिस रोगी को सब डाक्टरों आर येद्यों ने जवाब देदिया--मरणासन्न समक पृथ्वी पर उतार लिया गया-फिर भी व स्वयं चंगा होजाता है ओर ख़ख पुर्दक जीवन व्यतीत करता है । ऐसी घटनाओं को देखकर भी डाक्रों के कहने से किसी की जीवन लोला समात कर देना अन्पाय है । धर्म के नाप्र पर हिंसा घर्म-प्राण भारतवर्ष के 'घार्मिक इतिहास के परिशीठन से पक अदभुत तथ्य निकलता है--यहाँ के पूर्वजों ने जिस वस्तु को जनता के लिये ठाभकारक उसे उन्होंने घर्म का




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