बीसपंथी क्या मिथ्यादृष्टि हैं ? | Bispanthi Kya Mithyadristy Hai ?

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भरत काला- Bharat Kala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इस एक उदाहरण को उपलक्षणमानकर अन्य उदाहरणों को क्रमशः स्मरण करते जाना है कि अनजाने -अज्ञातभाव मे ही हम न जाने कितने आचार्य भगवंतों को मिथ्योपदेशक कहने का पाप कर आये है, इसका स्मरणं कर, उस पाप के प्रायश्चितं को तत्पर होना है ॥ इस पाप से मुक्त होने के लिये ही पाठकवर्ग को अपने बौद्धिक कद को ऊपर उठाना ही उठाना होगा, वर्ना धर्म के नाम पर हम केवल केवली अवर्णवाद को ही ढोते हुए पाये जाएगे ॥ अपने आद्यवक्तव्य के अन्त मे, भ य्ह क्या आर्थिका माताएँ पूज्य हैं ? पुस्तक के आद्यवक्तव्य के अंश को ही उद्धुत्‌ करना चाहूँगा, जो कि इस प्रकार है :- मैंने इस पुस्तक में भी सिर्फ एक ही लक्ष्य रखा है कि मेरे तर्कों से आगम में उल्लेखित सूत्रों में बाधा न आ जाए॥ कहीं मुझे भी मेरे तर्को के आश्रित हो यह न कहना पड जाए कि अरे !! यह तो अन्य मत से आया है, यह तो भट्वारकीय परम्परा है, यह आगम -बाह्य क्चन है. .......ये तो यदि इसके बाद भी मैं स्खलित हुआ हूँ तो पाठकगण कृपा कर मुझे क्षमा करें ॥ आप सभी से मेरा यही निवेदन है कि यदि मेरा तर्क आगम में उपलब्ध किसी भी सूत्र का उल्लंघन करे, तो कृपा कर आगम के सूत्र मत छोडिएगा, मुझे छोड दीजिएगा. ..... . यहाँ प्रश्न यह उठ सकता है कि आखिर हम आगम कहें तो किसे कहें ? सरल सा उत्तर है कि हमारे पास पचास से साठ ऐसे ग्रन्थराज हैं, जिनमें किन सिर्फ वर्तमान के सतस्त आवश्यक विषय संकलित हैं, अपितु जिनकी प्रामाणिकता पर किसी भी एक स्याद्वादी विद्वान को संदेह नहीं है, अतः हम और कुछ भी न करें, सिवाय इसके कि इन पचास या साठ धर्मग्रन्थों को प्रमाण मान कर, उन्हीं की सी अनुसारिणी बुद्धि का स्वयं को भी बना लें ॥ जैसे :- श्री षट्‌ खण्डागमजी, श्री कषायपाहुडजी, श्री धवलाजी, जय धवलाजी, महाधवलाजी ॥ श्री तत्त्वार्थसूत्रजी, श्री सर्वार्थसिद्धिजी, राजवार्तिकजी, श्लोकवार्तिकालंकारजी ॥ श्री देवागम स्तोत्रजी, अष्टशतीजी, अष्टसहस्रीजी ॥ श्री मूलाचारजी, मूलाचारप्रदीपजी, आचारसारजी, अनगार धमममृतजी ॥ श्री तिलौयपण्णत्तिजी, त्रिलोकसारजी, जम्बूद्धीपपण्णत्तिजी ॥ (>)




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