प्रकृति और काव्य | Prakrti Aur Kavya

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Prakrti Aur Kavya by रघुवंश - Raghuvansh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आमुस विधय प्रवेश--प्रस्तुत कार्ये को आरम्भ करने के पूर्व हमारे सामने प्रकृति और काव्य” का विषय था। प्रचलित शअ्रथ में इसे काव्य में प्रकृति-चित्रण के रूप में समभा जाता है, पर हमने यह विषय इस रूप में नहीं लिया है। जब हमको हिन्दी साहित्य के भक्ति तथा रीति कालों को लेकर इस विषय पर खोज करने का अ्रवसर मिला, उस समय भी विषय को प्रचलित भअ्रथ में नहीं स्वीकार किया गया है। हमने विषय को काव्य में प्रकृति सम्बन्धी ग्रभिव्यक्ति तक ही सीमित नहीं रखा है। काव्य को कवि से अलग नहीं किया जा सकता, और कवि के साथ उसकी समस्त परिस्थिति को स्वीकार करना होगा। यही कारण है कि यहाँ प्रकृति और काव्य का सम्बन्ध कवि की अनुभूति तथा अभिव्यक्ति दोनों के विचार से समभने का प्रयास किया गया है, साथ ही काव्य के सौन्दर्य-बोध (रसात्मक प्रभावशीलता) को भी दृष्टि में रकक्‍खा गया है । विषय की इस विस्तृत सीमा में प्रकृति और काव्य सम्बन्धी अनेक प्रदन सन्निहित हो गए हैं । प्रस्तुत कायं में केवल ऐसा है' से सन्तुष्ट न रहकर, क्यों है?” और कंसे है ?' का उत्तरं देने का प्रयास किया गया है । कायं के विस्तारसे यहं स्पष्ठहैकि इस विषय से सम्बन्धित इन तीनों प्रहइनों के आध[र पर आगे बढ़ा गया है। सम्भव है यह प्रयोग नवीन होने से प्रचलित के अनुरूप न लगता हो; और प्रकृति तथा काव्य की दृष्टि से युग की व्यापक पृष्ठ-भूमि और आध्यात्मिक साधना सम्बन्धी विस्तृत विवेचनाएँ विचित्र लगती हों । परन्तु विचार करने से यही उचित लगता है कि विषय की यथार्थ विवेचना वैज्ञानिक रीति से इन तीनों ही प्रश्नों को लेकर की जा सकती है । मानव की मध्य स्थिति--हम अपने प्रस्तुत विषय में जिस प्रकृति और काव्य के विषय पर विचार करने जा रहे हैं, उनके बीच मानव की स्थिति निश्चित है। मानव को लेकर ही इन दोनों का सम्बन्ध सिद्ध है। आगे की विवेचना में हम देखेंगे कि अपनी मध्य-स्थिति के कारण मानव इन दोनों के सम्बन्ध की व्याख्या में अ्रधिक महत्त्वपूर्ण है । यही कारणदहै कि प्रथम भाग की विवेचना मानव और प्रकृति के सम्बन्ध से प्रारम्भ होकर प्रकृति और काव्य के सम्बन्ध कीओर श्रग्रसर हुई है। आगे हम देख सकंगे कि मानव. अपने विकास में प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है; और काव्य मानव के




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