बुध्दचरित -भाग 2 | Bhudhdacharit Vol-2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
180
श्रेणी :
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श्री अश्वघोष - Shri Ashvaghosha
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सूर्यनारायण चौधरी -Suryanarayan Chaudhary
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सर्ग १५ ४ धर्मचक्र-प्रव्तन ८
अपने विचार स्थिर किये थे; ओर जैसे जैसे वह उनके समीप आते
गये वैसे वैसे वे अपना निश्चय तोड़ते गये ।
२०, उनमें से एक ने उनका चीवर अहण किया ओर उसी
प्रकार दूसरे ने हाथ जोड़कर उनका भिक्षा-पात्र ग्रहण किया । तीसरे ने
उन्हें उचित आसन दिया ओर उसी तरह दूसरे दो ने पाँव घोने के लिए
उन्हें जल दिया |
२१. इस प्रकार उनकी अनेक परिचर्याएं करते हुए उन सब ने
उनसे गुरुवत् व्यवहार किया ; किंतु जब कि उन्हींने भोन्र-नाम से
उन्हें पुकारना नहीं छोड़ा, तब भगवान् ने करुणापूर्वक उनसे कह्ा:--
२२. “हे मिक्षुओ, पूज्य अहंत् से पहले की तरह असम्मानपूर्वक
मत बोलो ; क्योकि यदपि में सचमुच ही प्ररंसा ब निन्दा से उदासीन
हूँ, तो भी में तुम्हें अपुण्यों से अलग कर सकता हूँ ।
२३. जगत् के हित के लिए बुद्ध बोधि प्रास्त करता है, अतः वह
सदा सब जीवों के हित के लिए काम करता है; ओर जो अपने गुर को
नाम लेकर पुकारता है उसके लिए धर्म उच्छिन्न हो जाता है, जैसे माता-
पिता का असम्मान करने से ।”?
२४, इस तरह वक्ता-श्रेष्ठ महर्षि ने अपने हृदय की करुणा से उन्हें
उपदेश दिया ; किंतु असार एवं मोह द्वारा बहकाये जाने के कारण
उन्होने सित मुखो से उत्तर दियाः-
२५, “हे गोतम, ठुमने परम उत्कृष्ट तपों द्वारा तत्त्व को नहीं समझा
ओर यद्यपि कष्ट से ही लक्ष्य प्राम होता है, तो भी तुम आराम-प्रिय हो ।
कैसे कह सकते हो--“मैंने ( तत्व को ) देखा है? !?
२६, जब भिक्षुओं ने तथागत की सच्चाई के बारे में इस प्रकार
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