बुध्दचरित -भाग 2 | Bhudhdacharit Vol-2

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Bhudhdacharit Vol-2 by श्री अश्वघोष - Shri Ashvaghoshaसूर्यनारायण चौधरी -Suryanarayan Chaudhary

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सूर्यनारायण चौधरी -Suryanarayan Chaudhary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सर्ग १५ ४ धर्मचक्र-प्रव्तन ८ अपने विचार स्थिर किये थे; ओर जैसे जैसे वह उनके समीप आते गये वैसे वैसे वे अपना निश्चय तोड़ते गये । २०, उनमें से एक ने उनका चीवर अहण किया ओर उसी प्रकार दूसरे ने हाथ जोड़कर उनका भिक्षा-पात्र ग्रहण किया । तीसरे ने उन्हें उचित आसन दिया ओर उसी तरह दूसरे दो ने पाँव घोने के लिए उन्हें जल दिया | २१. इस प्रकार उनकी अनेक परिचर्याएं करते हुए उन सब ने उनसे गुरुवत्‌ व्यवहार किया ; किंतु जब कि उन्हींने भोन्र-नाम से उन्हें पुकारना नहीं छोड़ा, तब भगवान्‌ ने करुणापूर्वक उनसे कह्ा:-- २२. “हे मिक्षुओ, पूज्य अहंत्‌ से पहले की तरह असम्मानपूर्वक मत बोलो ; क्योकि यदपि में सचमुच ही प्ररंसा ब निन्दा से उदासीन हूँ, तो भी में तुम्हें अपुण्यों से अलग कर सकता हूँ । २३. जगत्‌ के हित के लिए बुद्ध बोधि प्रास्त करता है, अतः वह सदा सब जीवों के हित के लिए काम करता है; ओर जो अपने गुर को नाम लेकर पुकारता है उसके लिए धर्म उच्छिन्न हो जाता है, जैसे माता- पिता का असम्मान करने से ।”? २४, इस तरह वक्ता-श्रेष्ठ महर्षि ने अपने हृदय की करुणा से उन्हें उपदेश दिया ; किंतु असार एवं मोह द्वारा बहकाये जाने के कारण उन्होने सित मुखो से उत्तर दियाः- २५, “हे गोतम, ठुमने परम उत्कृष्ट तपों द्वारा तत्त्व को नहीं समझा ओर यद्यपि कष्ट से ही लक्ष्य प्राम होता है, तो भी तुम आराम-प्रिय हो । कैसे कह सकते हो--“मैंने ( तत्व को ) देखा है? !? २६, जब भिक्षुओं ने तथागत की सच्चाई के बारे में इस प्रकार




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