साधना के पथ पर या अहिंसा के अनुभव | Sadhna ke Path Pr ya Ahinsha ke Anubhav
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
299
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ साधना के प्रथ प्र
तो मुभ “नाः कहना बहुत भारी मालूम होवा है ब श्रपने कामा की परव
न करके भी उनका काम कर देने की प्रवृत्ति होती है। मेरे घर के व
साथी सब इस प्रद्गत्ति से एक अंश तक दुखी रहते हैं, मुझे व मेरे कामों
को इससे हानि पहुँचती है, मगर मु्े कुछ ऐसा लगता है कि ऐसे समय
“नाः कहना मनुष्यता व सह्ृदयता के विपरीत है। इसमें मूल प्रेरणा तो
अहिंसा या सेवा की ही है; परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि समाज में
सदगुण की भी सीमा होती है । जब तकर श्रपेक्ता है तब तक सीमायें हैं,
ओर जबतक समाज है, हमारी सामाजिक दृष्टि है, तब तक सापेक्षता की
उपेक्षा नहीं हह सकती | समाज की हानि व टीका या निन््दा की जोखिम
लेकर ही मनुष्य निरपेत्ष रह सकता है और निरपेक्ष-दृष्टि को पृर्णंतः निमा
सकता है।
अपना नुकसान करके भी जो दूसरों के काम आता रहता है, वह
'्ेवकूफः' भले ही समझा जाय, मगर उसे प्यार सब करते हैं। उस बच-
ঘন के दिनों की एक ऐसी सनसनीदार घटना मुझे याद है जो इन उपद्रवों
की पृष्ठभूमि में देने जेसी है। दर्ज में एक लड़के से मेरा ऋगड़ा हुआ। उसके
पिता मदरसे में आकर मुक्के डॉयने-डपटने लगे। हेडमास्टर साहब ने
उन्हे मना किया) वे उनसे मी उलभ पड़े | हेडमास्टर ने अदालत में
मुकदमा चला दिया । में प्रधान गवाह बनाया गया | लड़के के बाप ने
अदालत में अलग ले जाकर मेरे पाँत पर पगड़ी रख दी | रोने लगे-- `
तुम्हारी गवाही से मेरी इज्जत मिद्दी में मिल जायगी | वे बुजुर्ग थे | में
इस भार को, उनके इतने जलील होने के इस दृश्य की, न सह सका |
मेरी आंखों से भी आसुओं की कड़ी लग गई। . मैंने गवाही नहीं दी, वे
बच गए । हेड मास्टर तो नाराज हुए, उनकी सारी इमारत ढह गई--
मगर सारे गांव में मेरी तारीफ होती रही--बद्री बड़ा शरीफ है ।
ही
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