हिन्दी - गद्य - मीमांसा | Hindi-gadya-meemansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) थी--काव्यों में देवी-देवताओं को स्तुतियां अवश्य रखनी होती थीं ॥ नाटकों का श्रम्त सदेव छखुखपद ही होता था, संयोग की जगह वियोगः दिखाना वर्मित था। नाठकों में यह स्वाभाविक ही था कि पात्रों की बोलचाल बहुथा गद्य में- ही हो, पर तब भी ज़्यादातर के कविता ही में वार्तालाप करते ये। ऐसा जान पड़ता द्वै कि हिन्दी पर भी संस्कृत-साहित्य को इस काव्यमयता का बड़ा प्रभाव पंडा होगा । हिन्दी का संस्कृत से भी बहुत घनिष्ट सम्बन्ध रहा है । उसका छन्दःशाल्न, उसके अलंकार, उसकी शब्दावली सभी संस्कृत से ली गई हैं। इसके सिवाय प्राचीन हिन्दी-साहित्य के प्रायः सभी लेखक और श्राचायं संस्कत के पूर्ण ज्ञाता थे । अतएव, शायद संस्कृतकाव्यकारों के सिद्धान्त की मान कर ही उन्होंने रोज की बोलचाल की भाषा या गय में कुछ लिखना द्वेय समझ हो। हिन्दी में गद्य लिखने की प्रथा देर में इससे भी प्रारम्भ हुई होगी कि उसके साहित्य का स्वरंकाल अधिकतर घामिक आन्दोलनों के बीच में ही पड़ गया था। १५ वीं और १६ बीं शताब्दियों के आसपास जब सूरदास और तुलसीदास कै द्वारः हिन्दी-साहित्य का सर्वोत्कृड्ठ भाग निर्मित हो रहा था, तब वल्लभाचार्य ओर रामानन्द वेष्णव-धर्म को बड़े वेग से समस्त भारत में पैल रदे थे । एषे वायु-मरडल में जहां “ क्रीन्हें प्राकृत-नन गुण-गाना, शिर धुनि गिरा लागि पहिताना? । की गूज हो रही हो, गद्य लिखना तो दूर रहा, सांसारिक विषयों पर




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