संस्कृत साहित्य में साहश्यमूलक अलंकारों का विकास | Sanskrit Sahitya Men Sahasyamulak Alankaron Ka Vikas

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Sanskrit Sahitya Men Sahasyamulak Alankaron Ka Vikas by ब्रह्मानन्द - Brahmanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रधम अध्याय सारस्य-निरूपण की आवश्यकता सादश्यमुलक्त अलझ्भारों के विवेचन के लिए यह. परम आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम सादश्य के स्वरूप को पुणे रूप से समझ लें तथा उसके क्षेत्र पर विचार कर ले । सारस्य सादश्य की परिभाषा निम्न प्रकार से की गई हैः-- “तस्दिब्रत्े सति तद्ृगतभुयोवर्मवत्वम्‌-काव्यप्रकाश टीका पृष्ठ ४४२ इस परिभाषा के अलुमार भिन्न वस्तुओं में धर्म अथवा धर्मों की साधारणता के आधार पर सादृश्य होता है। उदाहरण के लिए मुख तथा चन्द्र को लें तो उनके सादुश्य को इस प्रकार व्यक्त कर सकते है “चद्धभिन्नले सति चद्धगतान्नादकत्वमु সুদ चद्धसादश्यम्‌। यहां मुख तथा चद्ध भिन्न हैं, परन्तु आह्लादकता उन दोनों में रावा- रणधर्म के रूप में विद्यमान है। अतः इन दोनों में सादश्य है। इस प्रकार सादश्य में दो वस्तुएं होती है-भेद तथा धर्मों की साधारणता। धर्मों की साधारणता को हम अभेद कह सकते हैं। इस प्रकार सादुश्य में भेद तथा अभेद दोनों होते हैं। अभेद जिस प्रकार धर्मों के रूप में होता है, उस प्रकार भेद भी प्र्मों के रूप में ही सम्भव है। इसका कारण यह है कि वस्तुओं की सत्ता धर्मों के रूप में होती है। अतः उनका भेद उनमें विद्यमान धर्मों के झूप में ही सम्भव है। इस प्रकार सादुश्य में कुछ धर्म साधारण होते हैं तथा कुछ धर्म असाधारण होते है। धर्मों की साधारणुता से सामान्य तत्त्व बनता है तथा उनकी असाधारणता से विशेष तत्त्व बनता है। सादृश्य में सामान्य तथा विशेष ये दोनों तत्त्व होते हैं। निम्नलिखित उक्ति का यही आशय हैः-- “यत्र किखित्सामास्यं कश्रिश् विशेषः स विषयः सदृह्मतयाः' অঞ্জন १० २४ सामान्य तत्त्व का दूसरा नाम साधम्यं है तथा विशेष तत्त्व का दूसरा




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