सुर संकलन त्रिवेणी | Sur-sankalan (triveni)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १३ )
तर गए हैं उन्हीं का गान करने से कितना भद्दान् सुख मिलेगा;
सूर बतलाते हं--
“লী জু হীন হীঘালহি যাছ।
सो नहिं होत ज़प-तप के कीने कोटिक तीरथ न्हाये ।”
सूरदासजी कहते है कि “सोई रसना जो हरि गुण गाध”
ओर नेत्र व श्रवण, आदि की भी साथेकता तभी है जब वे प्रमु
के दशन व गुण श्रवण में लगे रहें, अन्यथा मनुष्य तो अपने
आपड्दी भूला हुआ भटक रहा द--
“अ्पुनपो आपुन दी मे बिसरयो।
जैसे श्वान काँच मन्दिर मे भ्रमि-भरमि भूकि मरथो।
৯ > ৯
सूरदास नलिनी को मुवटा कटि फोन जकगथो ॥
ऐसे भ्रम-पाश से घचने का फेबल एक ही उपाय द६फि शस
कलियुग में हरि का भजन किया जाय ।
“ह दृरि माम को आधार '
ओर इद्दि फलिकाल नाँद्दी रदयो विधि व्यवद्दार ॥
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सूर दरि फो सुयश गाबत जाएि मिट भवभार ॥
गोपाल के भजन फो छोड़कर न्य किसों फा ध्यान रखने-
पाले फो सूर मद्दामूढ़ समसते हं, जो अपने जन्म पो व्यथं गया
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शान देव रि तज्ञि भज सो जन्म गंवा ।
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सूरदास दरिनाम लिये दुश्य निगट मे आदे ॥
जिस प्रभु से दिक्ष मे प्रम ऐवा एं, उसके स्थान आदि से
ग्वाभाविषः मोद हो जाता ट्ौ सर्वा भक्त ভন জাজ
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