कल्याण | Kalyan

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Kalyan by सूरदासजी - Soordas Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पूज्यपाद श्रीउड़ियाखामीजीके उपदेश ( प्रेषक--भक्त भीरामशरणदासजी ) प्रभ-महाराजजी | उपासनामें कैसे रुचि हो ! उत्तर-उपासना करनेसे ही उपासनामें रुचि हो सकती है । जिसका जो इष्ट हो, उसे निरन्तर उसी- का चिन्तन करते रहना चाहिये | दम जिसकी निरन्तर भावना करेंगे, वह बस्तु हरमे अवद्य प्राप्त हो जायगी । उपासक तो एक नयी सृष्टि पैदा कर लेता है । इस प्राकृत संसारसे तो उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता । प्र०-भगवन्‌ ! ऐसी दिव्य दृष्टि कैसे সাল হা? उ० -बह तो भगवद्धजनसे ही प्राप्त हो सकती है । भजनसे ऐसी कौन चीज है, जो प्राप्त नहीं हो सकती। इससे अष्ट सिद्धि और निर्विकल्प समाधि भी प्राप्त हो सकती है । ऐसे महापुरुषोंको ही दिव्य बृन्दावनके दर्शन होते हैं, साधारण बुद्विवाले उसे कैसे देख सकते हैं । बास्तघरमे भक्त ओर ज्ञानी इस सृष्ठिं नहीं रहते | उनकी तो सृष्टि ही अलग होती है। इस सृष्टिमें तो वे आग छंगाकर आते हैं । प्र०-महारजजी | उनकी सृष्टि केसी होती है ? उ० - जिसमे निरन्तर रास हो रहा है । प्र ०-बह कैसे दीखे ? उ०-जो इस दुनियासे अंधे हैं, उन्हें ही वह दिभ्य रास दिखायी देता है । प्र०-इस दुनियाके त्यागका क्‍या खरूप है ? ३०-इस संसारके त्यागके दो रूप है-- देहत्याग ओर गेहत्याग | देहत्याग तो यह है कि लैंगोटीको भी फेंक दिया जाय, तथा गेहत्याग यह है कि पञ्चकीषसे अख्ग हो जाय | ৯৮৫ ৮ ১ ১ १. यदि भगवानका चिन्तन करते हुए हमें संसार- की चीजें अच्छी लगती हैं तो समझना चाहिये कि हम अभी अपने ढक्ष्यसे कोसों दूर हैं | जब संस्तारकी बढ़िया-से-बढ़िया चीजको देखकर भी हमें घ्रणा हो तभी समझना चाहिये कि कुछ भगवदनुराग हुआ। मगवद्भक्तको तो सभी चीजे तुच्छ दिखायी देनी चाहिये। २. याद रक्खो नाम मन्त्रसे भी बढ़कर है; क्योंकि मन्त्रजपमें तो विधिकी आवश्यकता है, किन्तु नामजपमें कोई विधि नहीं है | नाममें इतनी शक्ति है कि इससे संसारसमुद्र भी सूख जाता है | श्रीगोसाईजी कहते है-- नासु উত্ত भवसिंधु सुखार्हं । करहु बिष्वार्‌ सुजन मन माटी ॥ २. कम ओर उपासनासे ज्ञानका कोई त्रिरोध नहीं ^ 7 ॥ ॥ | क्षणभंगुर जीवनकी मलयाचलकी शुषि कलि-काल. कुठार रसनासे अनुरोध कल प्रातकों जाने खिली न खिली; হানতে मन्द सुगन्ध समीर मिली न দিতী। लिये কিবলা, तन नम्रः से चोट জিলা ল ভিলা! कह ले हरिनाम अरी रतना । फिर अन्त-समयमे हिली न हिटी॥ कल्कि है, उसका विरोध तो भज्ञानसे ही है । শপ नप्र (।




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