सुर संकलन त्रिवेणी | Sur-sankalan (triveni)

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Sur-sankalan (triveni) by सूरदासजी - Soordas Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) तर गए हैं उन्हीं का गान करने से कितना भद्दान्‌ सुख मिलेगा; सूर बतलाते हं-- “লী জু হীন হীঘালহি যাছ। सो नहिं होत ज़प-तप के कीने कोटिक तीरथ न्हाये ।” सूरदासजी कहते है कि “सोई रसना जो हरि गुण गाध” ओर नेत्र व श्रवण, आदि की भी साथेकता तभी है जब वे प्रमु के दशन व गुण श्रवण में लगे रहें, अन्यथा मनुष्य तो अपने आपड्दी भूला हुआ भटक रहा द-- “अ्पुनपो आपुन दी मे बिसरयो। जैसे श्वान काँच मन्दिर मे भ्रमि-भरमि भूकि मरथो। ৯ > ৯ सूरदास नलिनी को मुवटा कटि फोन जकगथो ॥ ऐसे भ्रम-पाश से घचने का फेबल एक ही उपाय द६फि शस कलियुग में हरि का भजन किया जाय । “ह दृरि माम को आधार ' ओर इद्दि फलिकाल नाँद्दी रदयो विधि व्यवद्दार ॥ >< (3 ৯৫ सूर दरि फो सुयश गाबत जाएि मिट भवभार ॥ गोपाल के भजन फो छोड़कर न्य किसों फा ध्यान रखने- पाले फो सूर मद्दामूढ़ समसते हं, जो अपने जन्म पो व्यथं गया হা €_ शान देव रि तज्ञि भज सो जन्म गंवा । ৮৫ ৯৫ र सूरदास दरिनाम लिये दुश्य निगट मे आदे ॥ जिस प्रभु से दिक्ष मे प्रम ऐवा एं, उसके स्थान आदि से ग्वाभाविषः मोद हो जाता ट्‌ौ सर्वा भक्त ভন জাজ




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