अन्धा युग एक सूजनात्मक उपलब्धि | Andha Yug Ek Sarjanatmak Uplabdhi

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Andha Yug Ek Sarjanatmak Uplabdhi by सुरेश गौतम - Suresh Gautam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ध्रन्‍्षा युग' के कया-सोत 11 कषा -बन्ध को लोवन्त बताने के लिए यहाँ 'मद्टामारत' के कोरे नकली रूप को बहिष्कृत रखा गया है 1 कया का भावानुवाद था छावानुवाद ग्रहण करते हुए कवि जे भपनी सर्जक मोलिकता का परिचय दिय्रा है। कथा में मोलिकता, नवीनता, ऐतिहासिकवा के हाथों भें परास्त कहीं नहीं है। कथा ने मुग के विषाद को व्यक्त कर के लिए तट चाहे तोड़ दिया हो, लेकिन कदा का तल कहीं भी बदला हुआ दृष्टिपत नही होता ) प्राचीन कथा का यह मेरुदण्ड निश्चय ही प्रपने पतेक सोपानों हे शुजर कर भी रहराद तथा छड़ता को स्थिति में नही पहुँचा है । कवि বি সহ कपा को प्रतीकारमक मोड़ दिया है भौर महायुद्वीय विभोधिका के दोष को खुलकर व्यक्त किया है 1 महामारत के रुत्री पर्द के सत्रह से चोबीस् प्रध्यायों मे भ्पने शव पुत्रो को, हृदय कौ खण्डशः विक्त करने याल, द्रवक मृत्यु तथा सम्पूणं कुलक्षय पर भन से तारों को किद्‌ कर प्रचिन्त्य वेदना घे तप्त दिलाप करती हूर गान्धारी जहां कृष्ण के सम्मूल नेसगरिक स्त्री-सुलम दिलाप मात्र करके मू््छा की क्रोड़ में विधाम पाती है वहाँ पच्दीसवें भव्याय में प्रत्रशोकोस्माद जनित विक्षोभ भौर कोध के ' पाष्ठ में छटपटाती, भाकोश से उत्पन्न विकृत मावों के वश्चीभूत हो उदलती हुई कृष्ण को कदू अभिशाप देती है। 'भन्धा युग' के पृष्ठों पर उसका शाब्दविश्न मारतीं ने प्रारम्मिक स्त्री-सुलम मवला रूप को युवानुकूल स्वाभिमानिती वारो-युगदर्शत रूप में ढाल कर প্রথা क्रोषोग्मादों रूप का यथातपष्य डिस्ब-प्रतिब्म्द-सा चित्रण किया हैं। गान्धारी का महाभारत में प्रवला रूप देखिए-- 'समीपस्थ॑ पोकेदामिदं वघनमनेवीत्‌ । उपस्थितेईस्मिनस्स प्रामे ज्ञातोतां सेक्षये विभो*** इत्येबमबुबव पूर्व नैने शोचामि दे प्रमो॥ भतरष्टर तु सोचामि दूपे दठदान्धवम्‌ 1 + महामारत को पंक्तियों के समातान्तर 'षन्धा युग' को पंक्तियों का भृह्योकन भी प्रषीष्ट दै “लेकिन प्रन्धी नहों थी मैं मैंने यह दाहर बग वस्तु-अगठ भच्छी तरह जाना था धर्म, रीति, मर्पादा, यह सब टै केदल भारम्दर मतर ससि स्वेच्छा উ জি ছল আাঁতী অহ पट्टी उड़ा एसी थी 12 कषान्दिति रखते हुए कवि ने दिदुर, गान्थारी घादि पाल़ों में सम्दन्धिठ प्रतीक क्थाघों वर विस्ठार डिया है। यह्‌ कथा-दिस्तार हास्दास्यद ग होकर শশী 1, अष्टाघारत : ष्वा स्वो दवं: बष्टाद 17 पृष्ठ 20 ২ নাক 589 2. अष्टापृष ও ছার : १० 21




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