गीता प्रवचन | Gita Pravachan

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Gita Pravachan by आचार्य विनोबा भावे - Acharya Vinoba Bhaveहरिभाउ उपाध्याय - Haribhau Upadhyay

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आचार्य विनोबा भावे - Acharya Vinoba Bhave

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हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyaya

हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला भ्र्याय ७ नही ह कि जिसे बडा समकर ग्रहण करे व छोटा समभकरे छोड दे । वस्तुत वह्‌ न बडा होता है, न छोटा । वह हमारे न्यौत भरका होता है । श्रेयान्‌ स्वधर्मो विगुण ' इस गीता-वचनमे धर्मं शन्दका श्र्थं हिदू-घमं, इस्लाम, ईसाई-धर्म आदि जैसा नहीं हैं । प्रत्येक व्यक्तिका अपना भिन्न- भिन्न धर्म है। मेरे सामने यहा जो दो सौ व्यक्ति मौजूद हैं उनके दो सौ धर है । मेरा धर्म भी जो दस वर्ष पहले था वह आज नही है । श्राजका दस वर्ष बाद नहीं रहनेका | चितन और अनुभवसे जैसे-जेसे वृत्तिया बदलती जाती हे, वैसे-वंसे पहलेका धर्म छुटता जाता हैं व नवीन धर्म प्राप्न होता जाता है । हठ पकडकर बु भी नही करना ह । दूसरेका धर्म भले ही श्रेष्ठ मालूम हो, उसे ग्रहण करनेमे मेरा कल्याण नहीं है । सूर्यका प्रकाश मुझे प्रिय है । उस प्रकाशसे में बढता रहता हू । सूर्य मुझे बदनीय भी है । परतु इसलिए यदि में पृथ्यीपर रहना छोडकर उसके पास जाना चाहगा तो जलकर खाक हो रहुगा । इसके विपरीत भने ही पृथ्वीपर रहना विगुण हो, सूर्यंके सामने पृथ्वी बिलकूल तुच्छ हो, बह स्वय-पकाग न हो, तो भी जवतक सूर्यके तेजको सहन करने का सामर्थ्यं मुभमे न प्राजाय तब तक सूर्यस दूर पृथ्वी पर रहकर ही मू श्रपना विकास करलेनाहोगा । मछलियोको यदि कोई कहे कि 'पानीसे दूध कीमती है, तुम दूधमे रहने चलो, तो क्या मछलिया उसे मजूर करेगी ? मछलिया तो पानीमे ही जी सकती है, दूधमे मर जायगी । दूसरेका धर्म सरल मालूम हो तो भी उसे ग्रहण नहीं करना है । बहुत बार सरलता ग्राभासमात्र ही होती है । धर-गृहस्थीमें ब[ल-बच्चोंकी ठीक सभाल नही की जाती, इसलिए ऊबकर यदि कोई गृहस्य सन्यास ले ले तो वह ढोग होगा व भारी भी पडेगा । मौका पाते ही उसकी वासनाए जोर पकडेगी । ससारका बोझ उठाया नही जाता, इसलिए जगलमें जाने वाना पहले वहा छोटी-सी कूटिया बनावेगा । फिर उसकी रक्षाके लिए बाड लगवेगा । एसा करते-करते वहा भी उसे सवाया ससार खड़ा करनेकी नौबत आजायगी । यदि सचमुच मनमे वैराग्यवृत्ति हो तो फिर सन्यासभी कौन कटिन बतत है । सन्यासक ्रासान बनानेवाले स्मृति-बचन तो हैं




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