कसायपाहुड़ | Kasayapahud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) होते हैं उनका तथा 'अबड्ढी' पद द्वारा संयबमासंयम और सं॑यमसे गिरते समय जो संक्‍्लेश परिणाम होते हैं उनका ग्रहण किया गया हे । छट्धी य संजम|संजमस्स' इसके अनुसार लब्धि तीन प्रकारकी हे--प्रतिपातस्थान, प्रतिपद्यमानस्थान ओर अप्रतिपात-अग्रतिपद्यमानस्थान | जिस स्थानके प्राप्त होनेपर यह जीव मिथ्यात्व या असंयमको प्राप्त करता है उसे प्रतिपातस्थान कहते हैं। जिस स्थानके प्राप्त होनेपर यह जीव संयमासंयम और संयमको प्राप्त होता है उसे प्रतिपद्यमान स्थान कहते हैं ओर स्वस्थानमें अवस्थानके योग्य तथा उपरिम गुणस्थानकी प्राप्तिके योग्य होष स्थानोंको अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थान कहते है । यहाँ इस पूर्वोक्त विवेचनको ध्यानमें रखकर सवंप्रथम संयमासंयमरुष्धिका विचार करते हैं-- संयमासंयमलब्धिकी प्राप्ति दो प्रकारसे होतो है--एक तो उपशमसम्यक्त्यके साथ होती हे और दूसरे वेदकसम्यग्दश नपू्वक होती है । यहाँ जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संयमा- संयमलब्धिको प्राप्त करते है उनका अधिकार है। वे इसे प्राप्त करनेके अन्तमुहूर्त पहले ही प्रति समय अनन्तगुणी स्वस्थान विशुद्धिसे विशुद्ध होते हुए आयुकंको छोड़कर शेप सभी कर्मोंका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कमं अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर करते हे । सातावेदनीय आदि शुभ कर्मोका अनुभागबन्ध ओर अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानीय करते हैं तथा पॉच ज्ञानाबवरणादि अशुभ कर्मोंका अनुभागबन्ध और अजुभागसत्कम द्विम्थानीय करते है । इतना करनेके अन्तमुंहू्तबाद अधःप्रवृत्तकरणको करते हुए प्रति समय तथाग्य अनन्त- गुणी बिशुद्धिसे विश्वुद्ध दवाते है । इन परिणामोंके कालमें स्थितिकाण्डक्घात और अनुभाग- काण्डकघात य काय नही होते । केवल स्थितिबन्धके पूर्ण हानेपर पलल्‍्योपमके असंख्यातव भाग कम स्थितिकां बोधते ই तथा जुम कर्मोको उत्तरत्तर अनन्तगुण अनुभागकं साय आर अश्चुमकर्मोका अनन्तगुण हीन अनुभागके साय बधते दे । बिशुद्धिको अपेक्षा विचार करनेपर पहुले समयमें जितनी जघन्य बिशवद्धि प्राप्त द्ोती हूं उससे दूसरे समयमें अनन्तगुणी जघन्य विशुद्धि भप्त होती है । इसप्रकार विशुद्धिका यह्‌ क्रम अन्तमुहूतकाल तक जानना चाहिये। पुनः अन्तमुहूतकालके अन्तिम समयमें जा जघन्य विदयुद्ध प्राप्त हाती दं उससे प्रथम समयकी उत्कृष्ट विश्युद्धि अनन्तगुणी होती है । उससे अन्तमुहृतक अन्तिम समयमें प्राप्त हुई जधन्य विशुद्धिसे अगछे समयमें जघन्य बिशुद्धि अनन्तगुणी प्राप्त होती है । उससे दूसरे समयमें उत्कृष्ट शुद्धि अनन्तगुणी प्राप्त होती हे । इसप्रकार विश्वुद्धिको इस परिपाटीको दर्शनमोहनीयके उपशामकके अधश्मवृत्तकरणमे प्राप्त हुई विशुद्धिके समान जानना चाहिए । इस विधिसं अधःपरबृत्तकरणके सम्पन्न होनेपर अपूवंकरणकी प्रापि हाती ह । इसमे स्थितिकाण्डकघात ओर अनुभागकाण्डकघात ये दोनों कायं प्रारम्भ ह्यो जाते हैं| यहाँ जघन्य स्थि तिकाण्डक पल्यापमके संख्यातवे भागप्रमाण होत्ता हे जौर उल्छृष्ट स्थितिकाण्डक साग- रोपमप्रथक्तवभ्रमाण होता हं । जुम कर्मोका अनुभागघात वो नहीं होता । লাল अञयुमकर्मोका प्रत्येक अनुभागकाण्डक अनुभागसत्कर्मके अनन्तबहुभागप्रमाण होता है। तथा स्थितिबन्ध पल्योपमके संख्यात भागप्रमाण द्वीन द्वोता है । यहाँ भी अपूबं करणके काढके भीतर हजारों स्थितिकाण्डकघात ओर उतने ही स्थिति- अन्धापसरण होते है । तथा एक स्थितिकाण्डकघातके काछके भीतर हजारों अनुभागकाण्डक- घात होते दहै)




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