पतिमोक्ख | Paatimokkh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६) দা ॥ জিদ নী प्र/तसोशष कर: बिख्ात ही बौद्ध विदुस के विकास का ऋरण झहा जा सकता है । वर्षावास-वर्षावास के विधान याता-यात कौ असुविधा तथा वर्षा के कारण उल्यन्न होने নাকি আবী ঈ उपधातसे बषनेङेलिएु किग्रा गया है| वैदिक तथा जेंन संस्कृति में भी यह मान्य है। जैन खिश्लु वर्षाबात करते थे और हरित ठूंणों पर विचरण करने से अपने ज्ञापकों बूचाते थे। परन्तु बौद्ध मिश्षु न वर्धावास करते थे और न॑ हरित तृणों को बच्चाते थे। बुद्ध के समक्ष यह बात रखी गयी । फलत. उन्होंने बौद्ध भिश्लुओं के लिए वर्षावास्र आवश्यक कर दिया । वर्षावास आसाठ प्रृणिमा भयवा आवण पूर्णिमा के दूसरे दिल से प्रारम्भ होता है जिसमें सीन माह तक स्थान परिवतंत करना निषिद्ध है। यदि निम्न लिखित व्यक्तियों का सन्देश अथवा कार्य हो तो भिक्षु एक सप्ताह के लिए धर्षा- वास तोड़कर बाहर जा सकता है। भिक्षु, भिश्ुणो, श्षिक्षमाणा, श्रामणेर, श्रामणोरी, उपासक, गौर उपासिकृ | बिहारादि का दान तथा पुञ्र-पुत्री आदि के विवाह में उपस्थित होना भी इसी के अन्तर्गत आजा जाता है। विनय पिटक में कुछ ऐसी परिस्वतियों का भी कर्णन है जिनमे संदेश के घिना भी भिक्षु- भिक्षुणी एक सप्ताह के लिए बाहर जा सकते हैं। उदाहरणार्थ भिक्षु को यदि रोग, अतभिरति, कौहृत्य, मिथ्यादष्टे, गरुषर्स आदि उत्पन्न हो गये हों लो भिक्षु जिना संदेश पाने पर भी उनकी सहायता करने जा सकता है। বিল্তী विशेष परिस्थितियों मे. स्थान-त्याग की भी अनुमति दी गई है । जैसे वन्य पशु, सरीसृष, चोर, पिशाच, अग्नि, जल, आदि का भय, अनुकूल भोजनादि की प्राप्ति न होना, गणिका, स्थूल कुमारी, पडक, ज्ञातिजन, भूपति, चोर आदि का आह्वान, कोषागार का दशन, और सघ भेद को रोकना । वृक्ष-कोटर, वृभ- भारिका, अध्याकास, अशयन, शवकूटिका, क्षत्रवास्ष, चाटीवास, आदि मे वर्षा करना विदेय नही है;। प्रवा रणा--वर्षावास के बाद सिक्षु संघ एकत्रित होकर अपने अपराधों का संदर्शेन करता है। इसी को प्रवारणा कहा मया है) इसमे दृष्ट, श्रुत ओर परिशर्धित अपराधों का परिमाजव किया जाता है मौर परस्पर मे विलय का भनुमोदन होता है-- महावग्य ( विनय ) पृ. १४४




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