राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची भाग 4 | Rajsthan Ke Jain Shasra Bhandarou Ki Granth Suchi Bhag 4

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Rajsthan Ke Jain Shasra Bhandarou Ki Granth Suchi Bhag 4 by श्री बासुदेवशरण अग्रवाल - Shree Basudevsharan Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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স্পট আস है । गुटकों में स्तोत्रों एसं ऋधाओं का अच्छा संप्रह है । आयुर्वेद के सेकड़ों नुससते इन्हीं गुटकों में लिखे हुये है. जिनफा आयुर्वेदिक विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जाना आवश्यक है। इसी तरह विभिन्न जैन विद्वानों दारा लिखे हुये हिन्दी पदों का भी इन गुटक़ों में एज स्वेतस्त्र रूप से बहुत अच्छा संग्रह मिलता है । हिन्दी ॐ प्रायः सभी जैनं कनिर्यो ने हिन्दी मँ पद लिख हँ जिनका अभी वक हमें कोई परिचय नहीं मिलता है। इसलिये इस दृष्टि से भी गुटकों का संप्रह महत्वपूर्ण हे জল विद्वान के पद आध्यात्मिक एषं स्तुति परक दोनों दी हैं. और उनकी तुलना हिन्दी के अच्छे से अच्छे कवि के पदों से की जा सकती है। जन विद्वानों फे अतिरिक्त कबीर, सूरदास, मलकराम, आदि कवियों के पदों का संग्रह भी इस भंडार में मिलता है| अज्ञात एवं महत्वपूर्ण प्र थ शास्त्र भंडार में संस्कृत, अप श, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में लिखे हुये सैकड़ों अह्ात प्रंथ प्राप्त हुये हैं जिनमें से कुछ प्रंथों का संक्षिप्त परिचय आगे दिया गया है। संरक्षत भाषा के प्र'थों में पघ्रतकथा कोष ( सकलकीत्ति एवं देवेन्द्रकीति ) आशाघर कत भूपाल चतुर्विशति स्तोत्र की संस्छृत टीका एषं रटनत्रय विधि भटरारक सकलकीति का परमात्मराज स्तोत्र; मट्यरक प्रभावंद का मुनिसुष्नत छंद, आशा- धर के शिष्य विनयचंद की भूपालचतुर्विशति स्तोत्र की टीका के नाम उल्लेखनीय हैं। अपभ्रश भाषा के ग्रंथों में लक्ष्मण देव कृत णेमिणाह्‌ चारिड, नरसेने की जिनरात्रिविधान कथा, मुनिगुदभद्र का रोहिणी विधान एवं दशलक्षण कथा, विमलसेन की सुगंधदशमीकथा अज्ञात रचनायें हैं। हिन्दी भाषा की रचनाओं में रल्ह कविकृत जितदत्त चौपई (सं. १३५४ ) सुनिसकलकीति छी कमेधूरिवेलि (१७ वीं शताब्दी ) श्रह्म गुलाल का समोशरणबणंन, ( १७ बी शताब्दी ) विश्वभूषण कृत पाश्येनाथ चरित्र, कृपाराम का ज्योतिष सार, प्रथ्वीराज कृत कृष्णरुकिसणीवेलि की हिन्दी गद्य टीका, बूचराज का मुबनकीशि गीत, ( १७ थीं शताब्दी ) घिहारी सतसई पर हरिचरणदास की हिन्दी गद्य टीका, तथा उनका ही कबिबल्खभ ग्रंथ, पदूमभ्रगत का कृष्णरुक्मिणी मंगल, दीरकदि क्र सागरदत्त चरित ( १७ बीं शताब्दी ) कल्याणकीति का चारुदतत चरित, हरिवंश पुराण की हिन्दी गय्य टीका आदि ऐसी रचनाएं हैं जिनके सम्बन्ध में हम पदिले अन्घकार में थे। जिनदत्त चौपई १३ वीं शताब्दी की हिन्दी पथ रचना है और अब तक उपलब्ध सभी रचनाओं से प्राचीन है। इसी प्रकार ল্য জী বেলা महत्वपूर्ण हैं । भथ मंडार की दृशा क्षंतोषभद है। अधिकांश ग्रंथ वेष्टनों में रखे हुये हैं । २, बावा दुलीचन्द श्च शास अंडा (क भंदार ) बावा दुलीचन्द्‌ का शास्त्र संडार दि» जेन बढ़ा तेरहपंथी मन्दिर में स्थित है।इस मन्दिर में दो शाश्च ंडार है जिनमे एष शास्त्र अंडार की मंथ सूची एवं उसका परिचय भ्रथसूची द्वितीय भाग में




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