संस्कृति के चार अध्याय | Sanskrati Ke Char Adhyay

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Sanskrati Ke Char Adhyay by जवाहरलाल नेहरू - Jawaharlal Neharu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेखक का निवेदन १३ कदाचित्‌, भारतीय संस्कृति कं चार सोपान' होना चाहिए था, कितु, वह नाम मन में आकर फिर लौट गया और मुझे यही अच्छा लगा कि इस पुस्तक को में “संस्कृति के चार अध्याय' कहूँ । । पुस्तक लिखते-लिखते मुझे इस बात का पूरा विश्वास हो गया कि भारत की संस्कृति आरम्भसे ही सामासिकं रही हं । उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, देश में जितने भी हिंदू बसते हैं उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी सामासिक संस्कृति की ही विशेषता है। तब हिंदू और मुसलमान हैं जो देखने में अब भी दो लगते हैं. किन्तु, उनके बीच भी सांस्कृतिक एकता विद्यमान है जो उनकी भिन्नता से कहीं प्रबल है । दुर्भाग्य की बात हैं कि हम इस एकता को पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ रहे हैं । यह कार्य राजनीति नहीं, साहित्य के द्वारा संपन्न किया जाना चाहिए । इस दिशा में साहित्य के भीतर कितने ही छोटे-बडे प्रयत्न हो चुके हें । वत्तेमान पुस्तक भी उसी दिशा में एक लघु प्रयास है । इस प्रसंग में केवल एक बात है जिसका उल्लेख मुझ अत्यन्त शोक के साथ करना पड़ता हैं | चौथे अध्याय में जहाँ मेने मुस्लिम जागरण का हाल लिखा हैं, वहाँ मुस्लिम सांप्रदायिकता के साथ मेने म्‌ स्लिम राष्ट्रीयता की भी चर्चा की हैं और यह आशा प्रकट की है कि सांप्रदायिकता के कारण देश का विभाजन हों गया, किन्तु, राष्ट्रीयता की जो भावना हिन्दुओं और मुसलमानों में उतनी स्पष्ट रही है, वह आगे चलकर हिदू-मुस्लिम एकता को मजबूत बनायेगी । उम प्रमग म मन उर्द के कवि जोश मलीहाबादी की भूरि- भूरि प्रशंसा की थी और उनकी कविताओं को अपनी स्थापना का बडा आधार माना था। किंतु, यू रोग से लौटने पर मेने यह देखा कि जोश, मानो, मुझे ही झुठछान को भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गये । यह इतिहास की अनहोनी घटना हैं ! कितु, अब तो इसे व्यक्ति की असमर्थता कहकर ही टालना होगा । मेरा विश्वास है, मुसलमानों के भीतर भारतीय राष्टीयता की जो धारा फूटी थी, वह आज भी मौजूद हैं और वह अपना काम करती जायगी । यह पुस्तक विद्रानौं का उच्छिष्ट चुनकर तेयार की गई ह, कितु, इसे मेने विद्वानों और विशेषज्ञों के पढ़ने के लिए नहीं लिखा है । असल में, यह उनके काम की चीज है जो खोजपूर्ण ग्रंथों का सामना नहीं करना चाहते, जो भारतीय संस्कृति को समञ्नना तो चाहते हें, कितु, जिनके पास संकड़ों ग्रंथों के व्यूह में जाने का अवकाश नहीं हैं तथा जो अनुसंधान और खोज की नीरस भाषा से भी घबराते हूँ । संक्षेप में, इसके मुख्य पाठक जन-साधारण होंगे, ऐसी मेरी कामना है। इसके आकार को देखकर उन्हें घबराना नहीं चाहिए | जिस अथाह विषय का इस पुस्तक में आख्यान है, उसके लिए ऐसी-ऐसी सौ जिल्दें भी शायद ही




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