मालवी लोकगीत एक विवेचनात्मक अध्ययन | Maalvi Lokgeet Ek Vivechnatmak Adhyyan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
192
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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के निर्माण वी प्रथम एवं प्रावश्यक स्थिति है । लोदभावना जहाँ सम्यतागत मिथ्या प्राडम्बरा
प्रौर दधना की चिता नही करती, वहाँ प्रभिव्यवित सबधी भाषा एवं छद वैः शास्य
नियमों के व धना की झार ध्यान देने की चेष्टा हागी, वह पाशा करता भी व्ययं है।
लोकगीता कै सम्बध म दिये गये विभिन विचारा मे म-बन स परिभाषा वा निर्धारण किया
जा सकता है । सक्षिप्त मे लोकगोत को परिभाषा यही हो सबती है --
सामाय लावजीवन की पाहव मूमि मेँ श्रचिन्त्य रुप से श्रनायाप्त ही फूट पडनेवाली
मनोभावा वी लयात्मक प्रभिव्यवित लाक्गीत कहलाती है ।
वलोकः ओर श्रामः शाब्द का प्रयोगः
लाक्-गीतकी परिभापाके सायहीभ्रप्रोजी शब्द एण], फोक कं हिदी समाना्यौं
हाद पर विचार करना भी झ्ावश्यक | তত্র শত के लिये हिटठी मे ग्राम, जन और लोक
इन तीना दन्ना का प्रयोग किया गया है । प० रामनरेश त्रिपाठी हिन्दी के लोवगीतो का
सकक्लन करन क सेत्र मे भग्रणी रहे हैं। उन्हान श्र ग्रेजी के' 'फाक साग! शब्द का श्रनुवाद
ग्रामग्रीत ही क्या है । त्रिपाठीजी की तरह हिंदी के प्नय विद्वाना ने भी ग्रामग्रीत शब्द का
प्रयोग कर त्रिपाठीजी का भ्रनुक्रण किया है। जिपाठीजी ने उक्त दाब्ट का प्रयाग
सब् १९२६ के लगभग क्या था ।*भ्रौर इसके पश्चात् दवे द्र सयार्थी भौर सुधाशु ने ग्रामगीत
शरद को ही अपनाया ।* 'प्राम श द को अपनान में जहाँ तक भावुकता प्रश्न है उसकय प्रयाग
करना व्यवित-विशेष के श्रपने दृष्टिकाण पर निर्भर है, किन्तु वे नानि श्रध्ययन एव भाषा
विचान की दृष्टि सर किसों भी चब्” के प्रयाग मे उसकी एकरुपता का रहना झ्रावश्यक है।
ग्रामगीत दाठ मे लाक्गीत हाद वी सी व्यापकता का प्रभाव है। प्राम के प्रतिरिक्त ऐसा भी
एक विस्तृत समाज है जिसकी अपनी धारणाए हैं, विश्वाम है, गीत हैं। भारत की सम्पूर्ण
मानवता का ग्राम और नगर की सोमा मे वाचना उचित नही है) क्यादि साधारणा जनता
केवल ग्राम तक ही सीमित नहो है। लोक को सीमा वडी व्यापक है, व उसमे ग्राम और नगर
का समवय प्रविच्छित है | लाक” शा” ही 'फोक” का सम्यत पर्यायवाची शब्द हो सकता है।
दस शद ष व्यापकता एवं प्रामाणिक प्रयाय के आधार व लिये पृष्ठभूमि भी है। भरत गुनि
ने लाकधर्मीय परम्पराप्रा एवं रूढिया को अपनाने का विशेष आग्रह किया है 13 लोक' हमारे
जोधन का महा-समृद्र है लोक एवं लोक वी धात्री सर्वभूतमाता पृथ्वी झोर लोव' का व्यक्त रूप
मरत है ৬ লাকমীর मेँ मालव हे भूमि और जन दाना की सहति पर ही अपनी भावना
१ कविता-फौमुदी, भाग ५ का उपश्योर्थक--प्रामगौत
२ पभ्र-सत्याथों का लेख--हमारे प्रामगीत, हस, फरवरी ३६1
य-सुधाशु, जीवन के तत्व झोर काव्य के सिद्धांत, प्रामगीत का भम
शीषक, झाठवा प्रध्याय, ( १६४२ } 1
३ छोक्यृत्तानुकरश नाटयमेत मयां छतम् भधष्याय १,इलोक ११२, (नाटय शास्त्र)
महपुष्य प्रशस्तम स्तोकानाम् नयनोत्सवम् ३०।६९०।३८।३३ ( वही )
४ डा० धासुदेवशरण प्ग्रवाल का “लोक का प्रत्यक्ष ददान', च्ीपफ लेख ।
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