तीर्थकर ऋषभ और चक्रवर्ती भरत | Tirthakar Rishabh Aur Chakravarti Bharat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैन वाद्याय में ७ चेदपूकंक कहा जाता--द्दा ] तुमे यह्‌ किया 7 अपराधी पानीन्‍यानों हो जाता 1 उत्त समय इतना कबन নী মৃত্যু দা ক্যান करता था । फुछ दिनों तक यह्‌ स्ययस्या चरती रहो । अपराप मो कम रोते, व्यवस्था मो बनी रहती । फिन्‍्तु, आवश्यकताओं फो पूछति के अभाव में धीरे-धीरे अपराध बढ़ने छगे और प्रचलित दण्ड-व्यवस्या भी छोगों के लिए सहज वन गई । माकार नीति विमज़वाहन के वाद उसका द्ो पुत्र चल्मुष्मान्‌ दूसरा फुछकर हुआ । वह भी अपने पिता की तरह ही व्यवस्याएं देता रहा । कमी अपराध वदते ओर फमी कम होते 1 'हाकार! दण्ड से सब झुछ ठोक हो जाता । चशुप्मान्‌ के बाद जब उसका पुत्र यशस्वी तृतीय कुकर बना; तव ধন নহয, সলিঘীঘ ব অন্ন अपराध भी बढ़ते गए । यज्मस्‍्वों ने यह सोचकर कि एक औषधि से यदि रोगोपदान्ति नहों होती तो दूसरो ओोषधिं के प्रयोग फरना चाहिए; 'माकार नीति” का प्रचलन किया । अपराधी से कहा जाता--'और कभी ऐसा अपराध मत फरनाः 1 अल्प अपराधी फो हाकारः सौर मारी अपराधी को 'माकार! का दण्ड दिया जाता ) धिक्कार नीति यप्चस्वी और चतुर्थ कुलकर अभिचन्द्र के समय तक उक्त दो दण्ड- व्यवस्थाओं से ही काम चलता रहा। पांचवें कुलकर प्रसेनजितु को फिर इसमें परिवर्तन करना पढ़ा । अपराधों की गुझ्ता बढ़ती जा रही थी । प्रारम्भ में जिसे महादु अपराध कहा जाता, इस समय तक वह तो सामान्य कोटि में आ चुका था। युगल कामात्तं, रज्जा वं मर्यादा-विहीन হীন लगे; इसलिए प्रसेनजितु ने हाकार और माकार के साथ धिक्कार नीति! का प्रचछन किया । इस दण्ड-व्यवस्था के अनुसार अपराधी को इतना ओर कहा जाता--ुपे घिवकार है, जो इस तरह के काम करता है! 1




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