विश्वकाव्य की रूपरेखा | Vishvkavya Ki Rup Rekha

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Vishvkavya Ki Rup Rekha by विजयेन्द्र स्नातक - Vijayendra Snatak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वर्ग के लिए न होता तो वह इस जवानी में न मरता ।! स्पेनिश कविता में भी मृत्युबोध को विश्व की समकालीन कविता की भाति हो भ्रभिव्यक्ति मिल रही है। रफाएल आलवब्रेती की कुछ काव्य पैक्तियां इस संदर्भ में पर्याप्त होगी । “अरे बन कर मृत्यु के साथ चलते ग्रपनी मौत से मिलते हो ।* मेक्सिकन कवि आक्टावियो पॉप मृत्यु प्रक्रिया की ओर संकेत करते हैं-- “और दिल की धड़कनों के पुल पर हम मौत श्रौर शुन्यता को पहुँचने तक दौडते रहते है। सामयिक यथार्थ की घुटन को--जो मूल रूप से अद्ययुगीन मानव को निरन्तर मृत्यु की श्रोर धकेल रही है--क्युबियन कवि इसेल रिवेयरी ने श्नु भव किया है, वह युग के विनाशक चेहरे से भली भाति परिचित है--- “मेरे श्रोठ इस युग की प्रशंसा करने को भ्रभिशप्त है धीमी ध्वनियों श्रौर संहारों का यह युग कितनी धोमी है बोध की यह प्रतिक्रिया ।” जीवन की श्रनैकं विडम्बनाश्रो को श्रत्मसात करते हुए श्रन्ततोगत्वा-र्वना- कार का ध्यान भ्मृत्युबोध' पर केन्द्रित हो जाता है भ्रौर भरसमय एवं श्रप्रत्याशित्त रूप से भ्रानेवाले मृत्यु के किसी भी क्षण की कल्पना कर सहम उठता है । पेरू का कचि सेज्ञार वलेजो विद्व जीवन को मृत्यु के जबड़ में फंसा अनुभव करता है--- “जब सारी दुनियाँ तुम्हारे सामने भ्रा गिरेगी तब मौत की खाली आखे मिट्टी के दो पासे बन उसे श्राखिरी तौर पर जीत लेंगी ।” मृत्युबोध' श्रनस्तित्व होते भौर प्रतिक्षण जिजीविषा चुकते मानव को हास प्रिया का भ्रनुभवे फरने से उपजता है। सम्प्रति युग का मानव प्रतिक्षण समाप्त होने की भ्राशेंका से सिहरता रहता है । इव्वेडोर के कवि जाजं करेरा भ्न्दरादे ने इस श्रनुभूति को सम्पूरां प्रक्रिया में गहा है- “झ्रौर हर मिनट दीवारें ढहने के बिजली गिरने करे इन्तजार में बिताता हूँ स्वर्ग से ने जाने कब नोटिस भ्राजाय ततैये फी उड़ान मे मौत भ्रा धमके ।




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