जीवन - दर्शन | Jeevan Darshan

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Jeevan Darshan by किशोरीलाल गुप्त - Kishorlal Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समाज-सुधार [ ६ ৩০ ৫৫০০০০৬৬০৫৪ ৯ तन समर लेन से कम को पानी पिलाने के विष तैयार हुआ | स्वयं बीमार रहा डिन्तु ग्राता, पिता और सन्तान के लिए उत्तने जरूर औषधियों जुटाई' | इस रूप में उसकी सहानुभूति, आत्मीयता और संवेदना व्यक्ति के सुद्र वेरे को पर करके अपने कुटुम्त तक फेली । इस रूप में उत्तकी हिसा की वृत्ति आगे चली ओर सुन्दर रूप में विक्रतित हुईं । इस तरह अहिंसा का विकात होने पर यदि मनुष्य को स्वार्थो ने घेर खसा है तो मानना चाहिए क्च अमृत में जुहर मिला है रौर उस्र जहर को श्रलग कर देना ही चाहिए । किन्तु यदि मनुष्य अपने परिवार के लिए भी कर्चेव्यचुद्धि से काम कर रहा है ओर उसमें आत्तक्ति भोर स्वार्थ का भाव नहीं रख रहा है भर उनसे सेवा लेने की वत्ति न रख कर अपनी सेवा देने की ही भावना रखता है, बच्चों को उच्च शिक्षण दे रहा है और समाज को सुन्दर रौर होनहार थुबक देने की तेयारी कर रहा है, গীত उत्तकी यह भावना नही है कि बालक होशियार होकर मेरी सेवा करोया और मेरे लिए धन जुटाएगा, बल्कि वह सोचता है कि वालक तेयार होकर अपने समाज, देश और जगत्‌ की सेवा करेगा और मेरे परिवार को चार चाँद लगाएगा | इस रूप में यदि उच्च भावना काम कर रही हैं तो आप इस उच्च भावना को कैसे अधमे कहेंगे ? में नहीं समझता कि वह अपम है | जैनधर्म जीवन के ग्रत्येक्र क्षेत्र में से मोह को दूर करने की बात कहता है, किन्तु उत्तरदायित्व को भटक क फेक देने की वात नहीं कहता | शावकों के लिए भी यही बात है और साधुओं के लिए भी यही बात है ! साधु अपने शिव्य की जरित्र सावना से पटा है ? इसी भावना को लेकर न कि शिष्य अपने जीवन को उच्च वना सके,-अपना कल्याण कर सके और संघ का भी कल्याण कर सके । কল] মানু জাতী को सामने रख कर साधु अपने शिष्य को पढ़ाता




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