अनुसंधान का विवेचन | Anusandhan Ka Vivechan

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Anusandhan Ka Vivechan by उदयभानु सिंह - Udaybhanu Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनुसंधान का स्वरूप १७ व्यक्ति और आचरण का ही नहीं, तदनुकूल मनोवृत्ति का भी ज्ञापक है।” इस प्रकार सत्य, भ्रपने विस्तृत अर्थ में, यथार्थ वाचनिक श्रभिव्यवित, तदनुकूल मनो- वृत्ति, उस्तीके अनुसार श्राचरण श्रौर इन सवकी समष्टि का भी द्योतन करता है। ३. 'सत्य' और तथ्य पर्यायवाची भी है ।* 'अरसत्य' के पर्यायरूप में व्यवहृत “वितथ राव्द वस्तुतः (तथ्य! का ही विलोम दै । 'अ्रभिज्ञानशाकुंतल' के प्रथम श्रंक में दुष्यंत की उक्ति है--प्रियप्तपि तथ्यसाह प्रियंवदा । यहाँ पर तथ्य' का भ्र्थं है-- सत्य | कालिदास ने स्वयं ही इसका संकेत कर दिया है--तामूचतुस्ते प्रियमप्प- 'सिथ्या । सल्लिनाथ की टीका में उसका स्पष्टीकरण भी विद्यमान है---प्रमिथ्या सत्यम्‌ 1 अन्यत्र भी उन्होंने कहा है--तथ्यं सत्यम्‌ ।” 'मनुस्मृति! (51२७४) में प्रयुक्त 'तथ्येनापि ब्र्‌ वन! की मन्वर्थदीपिका में कुल्लूकभट्ट ने भी तथ्य का সী 'सत्य' ही किया है। दाब्दकल्पद्रुम, दाब्दसागर आदि में भी 'सत्य' का श्रर्थ 'तथ्य' और (तथ्य' का श्रयं तत्य वतलाया गया ह । ४. परंतु, इन व्याख्याओ्रों के श्राधार पर श्राधुनिक अनुसंघान की आलोचना में व्यवहृत 'सत्यः और 'तथ्य' का सम्यक स्वरूप-निरूपण नहीं किया जा सकता । वैनानिंक गोध के संदर्भ में प्रयुकत इन शब्दों का बहुत-कुछ श्रर्थ-परिवतन हो चुका है । ५. हिंदी के एक प्रसिद्ध आाचाये ने एक विद्वत्संगोष्ठी के अ्रवसर पर तथ्य झौर सत्य का भेद-निरूपण करते हुए कथन किया--तथ्य -केवल बोध (ऐंद्रिय अथवा वीद्धिक प्रत्यय ) का विपय है, भ्रोर सत्य अनुभूति (भ्र्थात्‌ मर्म-साक्षात्कार ) का विपय है। एक उदाहरण देकर उन्होंने अपने मुहित श्राशय का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया। मान लीजिए कि दो मालगाड़ियाँ लड़ गयीं । उन गाड़ियों पर जिसका माल नहीं लदा था, जिसकी कोई हानि नहीं हुईं, उसे इस दुर्घटना का अववोध होता है । उसके लिए यह दुर्घटना तथ्य है। जिसका माल लदा हुआ्ना था, जिसकी हानि हुईं, उसे इस दुर्घटना की अनुभूति होती है। उसके लिए यह दुर्घेटना सत्य है। मेरे विचार से, उपर्युक्त दशनाभास-कल्पित कथन न तो शास्त्रसंगमत है, और न तकंसंगत । उस प्रसंगमें यह स्मरणीयहै कि श्रववोध' श्रीर श्रनुभव' के आधार पर ही विख्यात दर्शनशास्त्रज्ञ शंकराचार्य ने 'ज्ञान! और विज्ञान! का भेद निरूपित किया था--- . तदनुगुणा मनोवृत्तिः इह अ्रभिग्रेता |--गीता, १०।४ पर रामानुज-भाष्य . सत्यं तथ्यमृतं सम्यक--अमरकोश, १।६।२३ . रधुवंश, १४।६ - सा तथ्यमेवाभिहिता भवेन । (करमारसरम्मव, ३।६२) पर मल्लिनाथ कौ टीका ५८ „५ „९ ~ ~




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