सत्प्ररूपणासूत्र | Satprarupana Sutra

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Satprarupana Sutra by कैलाशचन्द्र शास्त्री - Kailashchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[१५ |] समाघान- नदी, क्योकि सासादनगुणस्थानको पृथक्‌ कटनेपे ही यह फलित होता है कि अनन्तानु- बन्धीकपायमे सम्यक्त्व ओर चारित्रको घातनेका स्वभाव हँ । सासादनगुणश्थान न तो दर्शनमोहके उ दयसे होता है जिससे उसे मिथ्यादृष्टि कहा जाये, न उसके उपशम, क्षय, मौर क्षयोपशमसे होता है जिससे उसे सम्यग्दष्टि या सम्यक्मिथ्यादृष्टि कहा जाये । ओर जिस अनन्तानुबन्धीकपायके उदयसे विपरीत असिनिवेश हुआ वह दर्शनमोहनीय नही है चारित्रमोहनीय है । शका--जब अनन्तानुवन्धी सम्यकत्व और चारित्र दोनोकी प्रतिवन्धी है तो उसे उभय प्रतिवन्धी नाम देना चाहिये ? ससाधान--यह तो हमे इष्ट ही ह अर्थात्‌ अनन्तानुवन्धीको सम्यक्त्व भौर चारित्र दोनोका प्रति- वन्धी माना ही ह । किन्तु सूत्रम विवक्षित नयक अपेक्षा उस प्रकारका कथन नही किया । इस शका-समा- धानसे यह्‌ स्पष्ट होता ह॑ कि अनन्तानुवन्धो सम्यक्त्व জী चारित्र दोनोका घात करती है मौर उसके उपशमादि होनेपर सम्यक्त्वके साथ चारित्रका अश भी प्रकट होता ह किन्तु चतुर्थं गुणस्थानमे उसकी मुख्यता न होनेसे विवक्षा नही है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सिद्धान्तमें कहाँ, कौन कथन, किस अपेक्षासे किया ग़य्याहै इस नयविवक्षाको दृष्टिमे रखना आवश्यक है अन्यथा अर्थका अनर्थ हो सकता है। इस तरहकी सैद्धान्तिक चर्चाओसे धवला टीका भरी हुई है । कही कही उसमें ऐसे कथन हैँ जो अन्यत्र कथनसे भिन्न जाते हैं । जैसे उसमें श्रेणिमें धर्म्यध्यान वतलाया है। लिखा है--असयतसम्यरृण्टि, सयतासयत, प्रमत्तसयत, अप्रमत्त सयत, उपशामक और क्षपक, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सृक्ष्मसाम्पराय जीवोके धर्म्यघ्यानकी प्रवृत्ति होती ह एसा जिनदेवका उपदेश हँ 1 इससे जाना जाता ह कि वर्म्यघ्यान कपायसहित जीवोके होता है ( पु० १३, पृ० ७४ ) तत्त्वार्थसुत्र तथा उसके टीकाग्रथोमें सर्वत्र श्रेणि शुक्लघ्यान बतलाया है। १३वी पुस्तकमें कर्म अनियोगद्वारके अन्तर्गत तपोकर्म प्ररूपणामें ध्यानका विस्तारसे वर्णन है । इसी तरह इसी पुस्तकके प्रकृति अनुयोग्ारमे कयित ज्ञानावरण कर्मकी प्रकृतियोका व्याख्यान करते हए घवलामे पाचौ ज्ञानोके ओर उनके भेद-प्रमेदोकी वडी विस्तारसे चर्चा की ह! ज्ञानकी इतनी विस्तृत चर्चा अन्यत्र देखनेमें नही आती | इस तरह घवलछा टीकामें बहुत विषय भरा हुआ हैं। इस प्रकार ये परकृत ग्रन्थके सम्बन्धमें ज्ञातव्य बाते हैं । -- सम्पादक




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