जैन कथामाला | Jain Kathamala

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Jain Kathamala by मधुकर मुनि -Madhukar Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भगवान ऋषभदेव डे तो मूसल से क्या डर ? कष्टो की परवाह किये विना हमे जन- कल्याण के लिए उधर चलना चाहिए ” आचाय फे पवित्रसक्त्प के लिए सब शिष्यों ने अपनी सहप स्वीकृति दी । आचायें स्वय धन्ना साथवाह के पास पहुँचे । साथवाह ने नमस्कार फर पुखा--'भतते ! आज मुझे कैसे दर्शन देकर उपकृत किया ? आपकी क्या सेवा करूँ ?! आचार्य- साथवाह्‌ । तुम वसन्तपुर की ओर प्रस्थान कर रहे ही ऐसा सुना है । तुमने अपने पुरुपाथं से वैभवही नही, किन्तु विपुल कीति भी अजितकीदे। तुम्हारी कीति हमने सुनी है । तुम जैसे धर्मानुरागी के साथ हमारा धर्मं सष मी इस इगम जगल प्रथ को पार कर उधर धर्म प्रचार के लिए जाना चाहता है ।” साथवाह ने प्रसन्नता वे साथ कहा--“महाराज ! मेरा अहोभाग्य है, इस बीहड मार्ग में आपका शरण भी मुझे प्राप्त होगा 1 साधु सन्तौ के दसन व सगत्ति सेतो भयकर सकट भी डल जाते हैं, यह तो छोटा-सा दुरुह पथ हैं । आपकी इस कृपा से हम सभी साथ के यात्री अत्यन्त प्रसन्न होगे ।” नियत दिन पर घन्ना साथ्थवाह्‌ अनेक व्यापारेच्छ यात्रियो ओर सेवको के साथ सुरक्षा आदि के सब साधन लेकर क्षिति- प्रतिप्ठपुर से निकला । आचार्य धर्मघोष भी अपने शिष्य समु- दाय के साथ निकल पड़े । मध्याह्न का समय हभा तो एक सुरक्षित स्मान पर सायं > १ शीत |




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