अहिंसा की विजय | Ahinsa Ki Vijay

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Ahinsa Ki Vijay by मधुकर मुनि -Madhukar Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अहिसा की विजय ] [४५ मेरी जन्म-यात्रा का उद्देश्य अपना लक्ष्य अथवा शिवपुर की प्राप्ति है। अन. में राज-सिहासन पर नही बैढेंगा। मुझे तो दीक्षा लेकर अपना कल्याण करना है ।” मत्री ने कहा--'ऐसा तो सभी राजा करते है। आपकी भी कुल-परम्परा यही रही है कि युवराज को राज्य देकर संयम का पालन करें । आपके पितामह जितशत्र्‌ ने भी आपके पिता अमर- दत्त राजा को राजमुकुट सौपकर सयम वरण किया था । “युवराज ! मैं कब कहता हैं कि आप सयम-वरण न करें ? अवश्य करें, पर समय आने पर उसी तरह करे, जैसे आपके पूर्वज करते आये है । अर्थात्‌ आपके पुत्र हो, वह वडा हो और तब आप उसे राज्यभार सौपकर चारित्र ग्रहण करें 1” शोकसतप्त युवराज सुदत्त को भन्त्री की बात पर हँसी भा गई । बोला वह--- “महामन्त्री | मेरे पिता की वात आप क्‍यों छोड गये ? उगहोने भी तो यही चाहा था कि मुझ्ते राजमुकुट सौपकर दीक्षा ले। पर कालवली ने उनकी इच्छा कब पूरी होने दी ? “मन्त्रीवर ! मृत्यु का तो कोई भरोसा ही नही है। जाने फब आ जाये ? अत. आप सब मुझे सयम की ही अनुमति दीजिए । मन्‍्ती ने पुन कहा--“युवराज ! पारलौकिक धर्म के साथ लौकिक धर्म का पालन करना भी मनुष्य का कंब्य है। पिता के राज्य का सचालन करना पितृऋण चुकाना है । आपका धर्म यह भो है कि आप कलिन देश की प्रजा का पालन करें। कुछ दिन तो करें ।




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