दिगंबर जैन सिद्धांत दर्पण | Digamber Jain Shidhant Darapan Ac 883

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Digamber Jain Shidhant Darapan Ac 883 by पंडित मक्खनलाल जी शास्त्री - Pt MakkhanLal Ji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[জল] कि किस समय पर और किस आचार्य ने হাল্যল্হান का क्‍या लक्षण माना दै ।” हमने उनसे यह पूछा छि एक चषं की खोज में आपने सम्यन्दर्शन के लक्षण में समय भेद और आचाय भेद से कोई भेद पाया क्‍या? वे बोले कि “अभी खोज समाप्त नहीं हुई दै। अन्तमें निष्कष निकल सकता दै।” इस प्रकार की खोज से यह परिणाम भी निकला जा सकता हे कि जो सम्यम्दशंन का लक्षण 'तत्वाथंश्रद्धान रूप! है । उसके स्थान मेँ तक॑-बितकं एवं परीक्तापूबंकं बस्तु को प्रण॒ किया जाय रेखा कोई लक्तण॒ भी भिल्ल जाय तो शिर खत्यक्‌ मिध्यात्व का विकल्प ही उठ जाय । बैसी अवस्था में आगम का बन्धन बाधक नहीं दोकर विचार-स्वातन्त्य-कषेत्र बहुत विस्टृत बन सकता है । हमारे वीतराग सहषियों ने सवंक्-प्रणीत, गणधर कथित, आचाये परम्परागत एवं स्वानुभव-सिद्ध तत्वों का ही ' विवेचन किया है । इस लिये उन्हें यदि परीक्षा की कसौटी पर रक्खा जायवो वे भ्नौर भी दृता एवं मौलिकता को भ्रगृट करते हैं। परन्तु परीक्षा करने की पात्रता नहीं शेवो उन सिद्धांतों को शास्रों की आज्ञानुसार ग्रहण करना दही बुद्धिमत्ता है। यथा-- सूदमं जिनोदितं तत्रं देतुभिनेंव हन्यते।. . आज्ञासिदशख् तदूप्राह्म नान्यथा-वादिनो जिनाः ॥ ` भर्थात्‌-जिनिनदरदेव दवारा कदे हए तत्व सूर्म हैं।




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