प्रताप - प्रतिज्ञा | Pratap Pratigya

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Pratap Pratigya  by जगन्नाथ प्रसाद - Jagannath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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হে | पहटा अङ्‌ ९ सामत- राजमहल ? उसे राजमहल न कटो राणा, उसके वक्षःखल पर वासनाओं का बह अविराम ताण्डव देखकर भी क्या उसे पिशाचपुरौ .न कहना चादिए ? देखते नहीं हो राणा, आज वाप्पा रावल का वह उज्ज्वल राज-सुकुट कायरता के कठंक से काला हो रहा है, मखमढी म्यान में भुवन-विजयी बीरों की करारी कटारी पर जंग चढ़ रहा है ! क्‍या यह सब चुपचाप सह উন কী নারি ই! देव उप्त दिन का अमर इतिहास क्या सहज दी मुखाया जा सकता हे, जव“ (कण्ठावरोध ) प्रताप--हाँ-हों, कहो भाई, জনতা सामंत--ज़ब खाधीनता की आराध्य देवी, खच्छन्द वायु ॐ दको से, खण उषा के अधरों से, मुक्त-मेघ की बूँदों से, तेजखी सूय -चन्द्र की खतन्त्र ¢ / इसी मरभूमि पर उतर कर क्रीडा फिया करती थी; इ गे मेवाड़ की उन्नत रक्त- ध्वजा उसके पावन चरणों के एक-एक चुम्बन पर प्रफुद्ठ होकर चित्तौड़ दुगे के सर्वोच्च शिखर पर बड़े वेग से फहरा उठती थी। तब मेवाड़ को अपना? कहते समय हमारे वीर पूर्वजों की छाती फूल उठती थी, मस्तक ऊचा हो जाता था ओर आरक्त आँखों के कानों से संतोष और स्वाभिमान की किरणें फूट निकलती थीं। किन्तु, अब प्रताप--अब भी मेवाद्‌ को भौ कहते समय किसे रोमांच न होगा १ क्या कहे दो भाई, हम मा को भूल गए १ सम्भव है| पर माँ तो हमें नहीं भूडी ! कछ जिसे “अपनी' कहने में




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