मनोविज्ञान और मानव जीवन की सफलता | Mnovighyan Or Jeevan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
338
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अन्तर्मुखी वनने की आवरयकता ६
चे इस विचार को दबाने की चेष्टा करते हैं ओर किसी प्रकार अपने आपको
सासारिक सुख ओर वैभव मे भुलाये रखने का प्रयत्न करते हैं। इस अवस्था में
ये सुख और वैभव निरानन्द तो हो जाते हैं, तिस पर भी वे उन्हें छोड़ते
नहीं, जिसका प्रधान कारण उचित शिक्षा अथवा सत्संग का अमाव होता हैं |
युंग महाशय का कथन है कि मानव-जीवन की प्रगति सूर्य की प्रगति के
समान दै । सूर्य॑ मध्याह्न काल तक ऊपर को चटता है, उसका तेज धीरे-धीरे
व्रता जाता है, इसके पश्चात् सूयं दलने लगता ই । चठते हुए सूर्य की प्रगति
एक प्रकार की होती है और उतरते हुए यूय की प्रगति दूसरे प्रकार की | इसो
तरह जब जीवन चडती हुई अवस्था में रहता है. तब उसके कर्चन्य एक प्रकार
के होते हैँ ओर जब अवस्था उतरती हुई होती है तो उसके कत्तंव्य दूसरे प्रकार
के हो जाते हैँ । जब मनुष्य अपनी किशोरावस्था श्रथवा युवावस्था में रहता है
तो अपने आपके विपय में अधिक चिन्तित रहना उसके लिये एक प्रकार का
पाप है और इसते उसे हानि भी होतीं है; जब वह जीवन की दूसरी अवस्था
में आ जाता है तो अपने आध्यात्मिक जीवन की ओर जाना उसके लिये कठिन
तो हा जाता है, परन्तु इसके लिये चेश करना अनिवार्य होता है। कुछ लोग
सारे जीवन भर व्रहिर्मुी ही बने रहते हैं। वें मानों अपने वाल्यकाल ओर
युवावस्था को छोड़ना ही नहीं चाहते | ऐसे लोगों को अनेक प्रकार के मानसिक
रोग हो जाते हैं | संसार के कार्यों में संलग्न रहना युवक को शोभा देता है ओर
उनसे विस्त हो जाना ढलती हुईं अवस्था के व्यक्ति के लिए. आवश्यक होता है ।
इस काल में यह आवश्यक होता हैं कि मनुष्य अपनी शक्ति का संचय करके
अपने आत्म ज्ञान को बढाने में उसे लगा दे। बाह्य बातो में मनुष्य जितनी ही
रुचि दिखाता है उसकी मानसिक शक्ति का उतना ही हास हो जाता है । अपनी
मानसिक शक्ति के हास हो जाने पर मनुष्य को केवल ' ढुःखमय जीवन बिताने
के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाता |
मनुष्य की चेतना ज्ञानमय और आनंदमय है। जिस पदार्थ पर उसका
प्रकाश पड़ता है उसका हमें भली प्रकारसे ज्ञान हो जाता है और जिस ओर
उसका प्रकाश नहो जाता उसका ह्म ज्ञान नहीं होता है। दम साधारणएतः
ससार की बातों के विषय में सोचा करते हैं, अतणव हमें इनका भल्ली प्रकार से
ज्ञान हो जाता है परन्तु हम अपने आपके ज्ञान से वचित रह जाते हैं। जब
हम अन्तमुर्खी बनते हैं अथीत् जब हम अपने व्यक्तित्व की बनावट और গ্সান্ন-
रिक मन के विपय में सोचने लगते हैं तभी हमें अपने आपका ज्ञान होता है | यही
ज्ञान हमे मानसिक उलभनों से मुक्त करता है ओर जीवन की प्रमुख समस्याश्रों
User Reviews
No Reviews | Add Yours...