सार समुच्चय | Saar Samucchya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
195
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about उपाध्याय मुनि निर्णय सागर - Upadhyay Muni Nirnaya Sagar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अर्थं कथञ्चित् है तथा “वाद ' शष्द का अर्थं कथन, वचन, वक्तव्य है । स्याद्वाद का अर्थं हुभा
कि कथञ्चित् किसी बात को स्वीकार करना । द्रव्य में विद्यमान अनत धर्मो का कथन एक साथ
सभव महीं है तथा वे धर्मं परस्पर विरोधी भी हो सकते है! इन विरोधी धर्मो को भी जो कथंचित्
(किसी अपेक्षा से यह भी सत्य है) सत्य कहता है वही है स्याद्वाद । स्याद्वाद समस्त विवादो को
লিঅতাল অ वस्तु तत्व का यथार्थं बोध कराने वाला अनुपम हेतु है।
77 भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित आचरणीय चिद्धान्त-
आचरण ही किसी धर्म की अतचचंतना हो सकती है, लिना आचरण के धर्म मुर्दा शरीर
के घराघर है मुख्य रूप से भगवान महावीर स्वामी द्वारा उद्घोषितं पाच सिद्धान्त सूत्र हैं। इनमे भी
आत्म कल्याण व शाति का रहस्य छिपा हुआ हे!
2. अहिसा व्रत
मन, वचन, काय से किसी जीव को कष्ट नहीं पहुचाना, न कष्ट देने हेतु किसी को
प्रेरित करना, किसी हिंसा करने वाले की अनुमोदना न करना अर्हिसा का स्थूल स्वरूप है।
यथार्थता मे तो किसी जीव के प्रति हिंसा के परिणाम भी न होना अथवा किसी भी पर पदार्थ के
प्रति हिंसा के परिणाम भी न होना अथवा किसी पदार्थ के प्रति राग द्वेष का नहीं होना, अपनी
आत्मा में लीन रहना ही परम अहिंसा है। इस अंहिसा की ही पूर्णता के लिए शेष चार सिद्धान्त रक्षा
कवच की तरह है। यह अहिसा ही जगज्जननी है, प्राणी मात्र का प्राणो से प्रिय धर्म है, यह
आत्म-स्वभाव है, लक्षण है, धर्म है ,नियति है, चरम साध्य लक्ष्य है।
2 सत्यव्रत
मन, वचन, काय से सम्पूर्णं असत्य का त्याग करना, न वचन से असत्य बोलना, न
शरीर से असद् चेष्टा करना ओर न ही मन मे असद् विचार करना। असत्य के लिए प्रेरित करना
तथा असत्यवादी असत्याथी असत्यासक्न की प्रशसा नहीं करना, उसकी क्रिया की अनुमोदना
नहीं करना, उक्ती चेष्टा ओ से सहपत्त नहीं होना ही सत्य व्रत है। पर भावो का सर्वधा त्याग कर
निजात्मा मे लीनता ही निश्चय सै सत्य व्रत है!
ও আভা व्रत
किसी की भूली हुई, पड़ी हुई, गिरी हुई, वस्तु को उस स्वामी की अनुमति के জিলা
ग्रहण करना या ग्रहण करने का भाव करना भी चोरी है, यह चोरी का स्थूल लक्षण है। सूक्ष्म रूप
से, दूसरे के विचार, आशय, ज्ञान, य, सुख, शाति छीनता भी घोरी है! जिस वस्तु का अधि.
कारी किसी ओर को होना चाष्िए यदि आप उसके अधिकारी अवैध रूप से खन गये है तो वह
भी खोरी है! निश्चयापेक्षा से तो पर पदार्थ का ग्रहण , आत्मा लीनता का अभाव चोरी है । स्वात्म
लीनता ही निश्चय से अचौर्य त्रत है!
User Reviews
No Reviews | Add Yours...