गीत - फरोश | Geet Pharos

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Geet Pharos by भवानी प्रसाद मिश्र - Bhawani Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कवि क़छम अपनी साध, ओर मन की वात बिलकुल ठीक कह एकाघ । ये कि तेरी-भर न हो तो कह, और बहते बने सादे ढंग से तो वह । जिस तरह हम बोलते हें, उस तरह त्‌ लिख, ओर इसके बाद भी हमसे बढ़ा त्‌ दिख । चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए बीज ऐसा वो कि जिसकी बेल वन बढ़ जाए ! फल लगें एसे कि सुख-रस, सार, और समर्थ ग्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिसका घर्थ ! टे मत पैदा करे गति तीर की अपना, पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना । विध्य, रेवा, फूल, फल बरसात या गरमी, प्यार प्रिय का, कप्ट-कारा, क्रोध या नरमी, देश या कि विदेश, मेना हो कि तेरा हो _ हो विदद विस्तार, चह एक घेरा हो, तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी, तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी । जनवरी, १९३० गीत-फरोज्ञ




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