बुझने न पाय | Bujhne Na Paay

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Bujhne Na Paay by श्री अनूप - Sri Anoop

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पर चुकने न पाय अभया वहाँ से उठकर चल पड़ती है और डा० स्वरूप बाहर की और चल देते हैं। जो चरमया नागरिक जीवन से इतना त्रोत-प्रोत है, उसके लिए निरा दिहात का बातावस्ण उसके मानस.स्तर को अचचल किये है। वह नहीं चाहती है, वह श्रयं चल होकर दूठ-सी पड़ी रहे, उसमें हलचल न हो, वह स्तब्ध होकर नहीं रहना चाहती । वह पाती है कि, यह जो स्थिरता है, वह तो नितांत शीतल है, बफ से भी अ्रधिक शीतल । श्रौर शीतलता जीवन नहीं है, उसे तो उष्णता चाहिए, उष्णता के अभाव में वह पीलापन के अधिक निकट प च गर है, उसे लालिमा चाहिए, उस लालिमा मे तरलता न हो, वह ठोस हो, वह सघन हो और सघनता के लिए वह विहल-बेचैन हो उठती है। वह चारो ओर दुष्टि दौदाकर देखती है--देखती है कि उसके आस-पास, जहाँ तक उसकी दुष्टि जाती है, फूस के छोटे-बड़े मोपड़े है, फोपड़ों की धनी पंक्तियाँ हैं, उनमें औरत-मर्द बूढ़े-बच्चे किलबिल-किलबिल करते हैं। कही से धूएँ निकलते हैं, कहीं से कवल धूल-ही-धूल निकलकर, हवा के साथ बहती हुईं, वातावरण को धूमिल किये छोडती इ । वह पाती है, बहुत-से औरत-मद' बाहर खेतो से घास या अनाज के बोमों को सिर पर लादे हुए हँसते-बोलते त्रा रहे है, कुछ ही दूरी पर वह पाती है कि छोटे-छोटे चरवाहे सेतो से मवेशियों को चराकर, धूल उड़ाते डैए गाँव की ओर आ रहे है। शीत का दिन है; पर उनके शरीर पर ढैंकने को पूरे वस्त्र नहीं--जो भी है, काफी गन्दे ! अभी-अभी कु ए पर चारों ओर से घेरकर जो औरते पानी भर रही हैं, उन्हें भी तो जसे सर्दी लगती नहीं, पहनने को उनकी वे गन्द] स। डया रौर बदन पर गन्दे सलक. उफ, यही दिहा ह ! बाबूजी का दित “जहाँ उनके देवता का निवास है. उफ कितनी गहरी गरीबी के शिकार है ये अभागे मानव ! और यही शोभा है इस दिहात की !! अभया इससे अधिक सोच नहीं सकती, वह अपनी जगह से उठ पड़ती है, वह अपने बदन को आईने के पास आकर




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