समाज की वेदी पर | Samaj Ki Vedi Par

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Samaj Ki Vedi Par by श्री अनूप - Sri Anoop

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरी दिंलरुंची, न आह ! तू कब से मेरे खत के इंतजार में पड़ी होगी, कुंदन.! मुझाफू करना । तुमे शायद यक्रीन तो न होगा; लेकिन खुदा को छुक्र है--मैं बाल-बाठ बच गई | नहीं तो, आह ! छाज मैं कहाँ होती ?' किसीको भला क्या. पता रहता ! तअज्जुब न करना ! बात दी कुछ ऐसी हुई । इसे न तो बात की सफाई ही समभना और न खत लिखने का बहाना दी ! मैं तो समकती हूँ तूखत न पाकर खीक-सी जरूर गई दोगी, तुदुक-मिज्वाज ठहरी ! अच्छा; चाहे मेरी बातें सच्ची न मानना, मैं मनवाती भी नहीं, फिर भी जैसा वाक़या गुजरा है, उसे तो कम-से-कमे तेरे सामने रख दी देती हूँ। दिल चाहे तो पढ़ना; नहीं तो, हो; रही की टोकरी में दी डाल देना । रु अच्छा तो; कुंदन, सुनो । परसों के दिन शाम के बक्त गंगा के किनारे छोगों की खाखी भीड़ थी । सभी अपने मन-चाहों के साथ इधर-उधर भठखेलछियाँ करते हुए इवाखोरी कर रहे थे । गंगा की ऊहदरों के साथ बहुत-सी छोटी-बड़ी किंस्तियाँ खेठ रही दे




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