केवल ज्ञान प्रश्न चूड़ामणि | Keval Gyan Prashn Choodamani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आदिवचन अनन्त आकाश मण्डल मे अपने प्रोज्ज्वल प्रकाश का प्रसार करते हुए असख्य नक्षत्र दीपो ने अपने किरण करो के संकेत तथा अपनी आलोकमयी मूकभाषा से मानव मानस म अपने इतिवृत्त की जिज्ञासा जब जागरूक की थी तब अनेक तपोधन महर्षियों ने उनके समस्त इतिवेयो को करामलक करने की तीव्रतपोमय दीर्घतम साधनायें की थी ओर वे अपने योगप्रभावप्राप्त दिव्य दुष्टियो मे उनके रहस्यो का साक्षात्कार करने में समर्थ हुए थे, उन महामहिम महषियो के हृत्परर मे अपार करुणा थी अतः वे किसी भी वस्तु के ज्ञानगोपन को पातक समन्नते थे, अतः उन्होने अपनी नक्षत्र सम्बन्धी ज्ञानराशि का जनहित की भावना से बहुत ही सुन्दर संकलन ओर सग्रथन कर दिया था । उनके इस संग्रथित ज्ञान कोष की ही ज्यौतिषशास्त्र के नाम से प्रसिद्धि हुई थी जो अब तक भी उसी रूप में है । इस विषय में किसी को किडिचत्‌ भी विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिए कि सर्वप्रथम ज्यौतिष विद्या का ही प्रादुर्भाव हुआ था और वह भी भारतवर्ष मे ही। बाद में ही इस विद्या के प्रकाशन ने सारे भूमण्डल को आलोकित किया और अन्य अनेक विद्याओ को जन्म दान किया । यह स्पष्ट हैं कि एक अछ्ूः का प्रकाश होने ক बाद ही “एकमेयाद्वितीयं ब्रह्म ” इस अद्वेत सिद्धान्त का अवतरण हुआ था । दो सख्या का परिचय होने के बाद ही द्वंत विचार का उन्मेष हुआ | अद्ठत द्वैत विशिष्टाद्वेत शुद्धाद्दत द्वेताढ्ेत तत्त्वों की सख्या मे न्याय, वेशेषिक, साख्ययोग, पूर्व और उत्तर मीमांसा के विभिन्न मत में इन सबों के जन्म की ज्यौतिषविद्या की নহনলাবৃলানিলা-লিবিনাহ ফল से सभी को मान्य है । पञ्चमहाभूत, शब्दशास्त्र के चतुर्देश सूत्र तथा साहित्य के नवरसादि की चर्चा अङ्कुमेदादि संबद्ध गुरुलघ्वादि संबद्ध छन्द के रचनादि ने इस ज्यौतिष शास्त्र से ही स्वरूप लाभ पाया है । एसे ज्योतिप शास्त्र की प्राचीनता के परीक्षण मे अन्य अनेक बातों को छोड कर केवर ग्रहोच्च के ज्ञान से ही यदि वर्ष की गणना की जाय तो सूर्य के उच्च से “अजबुषभम्‌गाड्रनाकुलोरा ऋषवरणिजो च दिवाकरादितुड्भा:। . दशशिखिमनुयुक तिथीन्द्रियांशेस्त्रिनवर्कावश तिभिहइच॒तेस्तनीचा ॥:” गणना करने पर इस व्यावहारिक ज्यौतिष गणना के प्रयत्न की न्यूनतम सत्ता आज से २१, ८० २९६ वष पूवं सिद्ध होती है, इसी प्रकार मगल के उच्च से विचार करने पर १,१२,२९,३९० वर्ष तथा शनेइचर के उच्च से विचार करने पर १,१२,०७. ६९० वर्ष पूरब इस जगत में ज्यौतिष को विकसित रूप में रहने की सिद्धि होती है, जो आधुनिक ससार के लोगो के लिए और विशेष कर पाङ्चात्य विज्ञानविशारदो के लिए बड़े आइचयं की सामग्री हे । “ज्योतिषज्ञास्त्रफल॑ पुराणगणकंरादेश इत्युच्यते ' ““आचार्यों के इस प्रकार के वचनों के अनुसार मानव जगत भें विविध आदेश करना ही इस अपूर्व अप्रतिम ज्यौतिषशास्त्र का प्रधान लक्ष्य हं । इसी आदेश के एकाङ्क का नाम प्रइनावगम तन्त्रहं । इस प्रहन प्रणाली को जेन सिद्धान्त के प्रवतंको नं भी आवश्यक समञ्लकर बड़ी तत्परता से अपनाया था ओर उसकी सारी विचारघारायें केवलज्ञानप्ररन- खूडामणि के रूप में लेखबद्ध कर सुरक्षित रखी थी, किन्तु वह ग्रन्थ अत्यन्त दुरूह होने के कारण सर्वसाधारण का उपकार करने मे पूर्णं रूपेण स्वयं समथं नही रहा अत मेरे योग्यतम शिप्य श्री नेमिचन्द्र जन जी ने बहुत ही विदरत्तापूर्णं रीति से सरलसुबोध उदाहरणादि से सुसज्जित सपरिणिष्ट कर एक हूद्य-अनवद्य टीका के साथ उस ग्रन्थ को जनता जनादन के समक्ष प्रस्तुत किया है, इस टीका को देखकर मेरे मन मे यह दृढ धारणा प्रादुर्भूत हुई है किं अब उक्त ग्रंथ इस विशिष्ट टीका का सम्पकं पाकर समस्त विद्रत्समाज तथा जन साधारण के अत्यन्त समादरणीय ओर संग्राह्य होगा । टीका की लेखनशैली से लेखक की प्रसंशनीय प्रतिभा ओर खोकोपकार की भावना स्फुट रूप से प्रकट होती है । हमे पूर्ण विश्वास हैँ कि जनता इस टीका से लाभ उठा कर लेखक को अन्य कठोर ग्रन्थो को भी अपनी ललित लेखनी से कोमल बनाने को उत्साहित करेगी । संस्कृत महा विद्यालय ड ০ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय श्री रामव्यास ज्योतिषी १७ जनवरी ५० (अध्यक्ष ज्यौतिष विभाग )




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