सूरसागर खंड १ | Sursagar Khand-i

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्य प्रथम रकंघ जे लन सरन भजे चनयारी । से ते राखि लिए जग-जोवन, जहेँ जहेँ विपति परी तहेँ टारी ! संकट तैँ प्रह्नाद उधघारयो, हिरनाकसिप-उद्र नख फारी । छंब्र हरत ट्ुपद-तनया की दु््सभा मधि लाज सम्हारी । राख्यी गोछुल बहुत विघन ते; कर-नस पर गोवधन धारी | सूरदास प्रभु सब सुस-सागर दीनानाथ, मुकुंद, सुरारी ॥र९॥ पास्थ के सारथि दरि झाप भए हें। भक्तबदधल नाम निगम गाइई गए हैं। बाएँ कर. बाजि-बाय. दादिन हैं. बैठे । हॉकत हरि. हॉक देत गरज्त ज्यों एँठे । छाती लॉ छोॉह किए सोमित हरिःछाती । लागन नहिं देत कहूँ समर-झॉच ताती | करन-मेघ . वान-बूँद भादी-करि . लायी । जित जित मन 'अजुन की तित्दि रथ चलायो 1 कौरो-दुल नासि नासि कोन्दों जन-भायी 1 सरन गए राखि लेव सूर सुजस गायों ॥९३॥ राग परज स्याम-भजन-विन्ु कौन चड़ाई ? बल, विद्या; घन, धाम, रूप, गुन ीर सकल मिथ्या सँजाई। 'छंबरीप, प्रदलाद, नपति बलि, मद्दा ऊँच पदवी तिन पाई । गदि सारेंग, रन रावन जोस्यी, लक विभीपन फिरी दुद्दाई। मानी द्वार बिमुस दुरजोधन, जाके जोधा हे सी भाई। पांडव पाँच भजे. प्रभुनचरननि, रनहिं जिताए है जदुराई। राज-रवनि सुमिरे . पति-रारन सुख्चंदि ते दिए छुड़ाई। अति झानंद सूर तिहिं श्ौसर,; कीरति निगम कोटि सुख गाई ॥२४॥। का राग विहागरो कहां गुन वरनो स्याम, तिहदारे । झुषिजा; बिदुर; दीन द्विज, गनिक्ा, सबके कान सेँवारे । जज्ञभाय _ नि. लियी देत सौँ रिपिपति पतित विचारे । मिल्निनि के फल साए भाव सौ. सारे-मीठे-खारे ।




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