जैन साहित्य का इतिहास भाग २ | Jain Sahityaka Itihaas Vol-ii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य . ७ सुमेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है । उसके ऊपर ४० योजन ऊँची उसकी चूलिका है। घूलिकासे एक वालाग्रका अन्तर देकर स्वर्गोंके विभान शुरू हो जाते हैं। स्वर्ग १६ है और युगलरूपसे ऊपर २ स्थित हैं। १६ स्व्गोकि ऊपर नौ ग्रैवेयक हैं, उनके ऊपर नौ अनुदिश विभान है। उनके ऊपर पाच अनुत्तर विमान है । और उनके ऊपर सिद्ध लोक है | संक्षेपमें यह जैन खगोऊ भूगोल सम्बन्धी मान्यता है । वैदिक धमं ओर बौद्ध धर्ममे भी इससे कुछ मिलती-जुलती और कुछ भिन्‍नताको लिये हुए मान्यतां हँ । अस्तु, लोकविभाग (श०सं० ३८० वि० सं० ५१५) दिगम्बर परम्परामे खोकानुयोग॒ विषयक प्राचीन ग्रन्थ लोकविभाग था । यह ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है । परन्तु एक ससस्‍्कृत लोकविभाग उपलब्ध है जो उसीका परिवर्तित रूप है। उसके प्रारम्ममे ' कहा हैं कि लोक और अलोकके विभागोंको जानने वाले जिनेश्वरोंकी भक्तिपूर्वक स्तुति करके »क तत्त्वका संक्षेप में व्याख्यान करता हूँ । और अन्तिमः प्रशस्तिमे कह है कि देवी और मनुष्योंकी सभामे तीर्थ ड्डूर महाबीरने भव्यजनोके लिये जो सारा जगत विधान कहा, जिसे मुधर्मा स्वामी आदिने जाना और जो आचार्योकी परम्परा द्वारा चला आया, उसे ऋर्षि सिहसूरने भाषाका परिवर्तन करके रचा और निपुण साधुओने उसे सम्भा- नित किया । जिस समय उत्तराषाढ नक्षत्रमे श्नइचर वृष राषिमे, वहस्पति तथा उत्तरा फात्गुनिमे त्रन्द्रमा था तथा शुक्लूपक्ष था, उस समय पाड्य राष्ट्रके पाट- लिक ग्राममे प्वकालमे सर्वनन्दि मुनिने इस शास्त्रकी लिखा था। काची नरेश सिह वर्माके २२वें संबत्सर और शकके ३८०वे सवत्सरमे यह ग्रन्थ समाप्त हुआ । =-= “~~~ ऋण |- ৮ স্পা = = एक लाख योजनके अन्तर पर सप्तधि मण्डल हैं। सप्तषियोंसे भी सो हजार योजन ऊपर समस्त ज्योतिश्वक्रका नाभिरूप ध्रुव मण्डल स्थित है ।--वि० पु०, अश २, अ० ७। १. “लोका लोकविभागज्ञान्‌ भक्त्या स्तुत्वा जिनेश्वरान्‌ । व्याख्यास्यामि समासेन लोकततत्वमनेकेधा ।।१।॥' २. भव्येम्यः सुरमानुषोरसदसि श्रीवद् मानार्हुता, यत्रोक्तं जगतो विघान- मखिल ज्ञात सुधर्मादिभि । आचार्याबकिकागतं विरचित तत्‌ सिहसूरषिणा, भाषाया परिवर्तनेन निपुणः सम्मानित साधुभि' ॥१। वश्व स्थिते रवि- सुते वृषभे च जीवे राजोततरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रं ¦ म्रामे च पाटलिक- नामनि पाण्ड्यराष्टर शास्त्र पुरा लिखितवान्‌ मुनि सर्वनन्दि. ॥२॥ सवत्सरे तु द्वाविशे काश्लीशसिह वर्मण । अशीत्यग्रे शकाब्दानां सिद्धमेसच्छतत्रये ॥1३॥




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