तत्त्वार्थश्लोकवर्तीकालंकार भाग४ | Tatvarthashlokvartikalankar (khand - Vii)

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Tatvarthashlokvartikalankar (khand - Vii) by वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री - Vardhaman Parshwanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ आचाये | শর হাক विदद! पाश्चिय, आचाये विद्यानन्द स्वामी सपूर्ण ताकिक बिद्वानोके समूहमे चुडामणीके समान थें | इसका सवे शास्वोमे स्वतन्त्र-अद्धितीय वाग्मित्व-वाक्पट्त्व था । सरस्वतीरूपी कतावेरीके विस्तृत भूषावेषसे विभूषित एसे न्यायज्ञास्त्र -व्याकरणक्ञास्त्र-सिद्धातशास्त्र इन ग्रथत्रयी विद्याको जाननेवले विद्रानोमे इनकी प्रज्ञाप्रभा सूर्यकी प्रभाक सपान विशेष अतिश्चयको धारण करतैवाली त्रिरोकव्यापी प्रतापवान्‌ थी, इस विषयमे परिपक्वं प्रज्ञाके गगि्माको धारण करनेवाले ताकिक कोई भी विद्वानोमे विवाद नही है । इनके द्वारा रचित अष्टसहुस्ती नामक सुलूभकृति हजारो एकातवादी दुर्जनोको নিজ करनेवाली है। हजारो तत्त्वशकाके कष्ट-दु खोकों दूर कर समीचीन वस्तु तत्त्वोका प्रतिष्ठापन करनेवाली है।1 हज।रो तत्त्वश्रष्ट लोगोको अपने चरणोमे शरण छाकर नम्र किया है। इनकी सप्तसंगीका प्रत्तिपाटन करतेकः पटुत्ताकौ विलक्षण प्रतिभा तानीजनोफे चितचैतन्यको चमत्का- रक प्रतिभासित होती है। आजकर उनके हारा विरचित विद्यानन्द महोदय नामक ग्रथराजमे उन्होने कितने मेय- प्रमेय सिद्धात गृफित किये है यह हम नहीं जात सकते है। ऐसी क्रचित्‌ प्रमोदं जनक तो किचित्‌ खेदजनक परिस्थिती उत्पन्न हुई है 1 उसको कौन रोक सकता है ? इन्होने स्यादाद वाणीकी दु दुसिघ्वनिको उद्धोषित कर गुरुपरपरागत अकेकदेवको निष्कलक-निर्दोष प्रक्रियाक्रा अतृसरण कर अत्यत रक्ष विषयक न्यायशास्त्रका उद्धार किया है। इन्होने तत्वार्थजास्तरावतार से स्वामी अकलक्रदेव रचित स्तुतिगोंचर आप्तपीमासा अल- कृतिके षड़दर्शनशास्त्रके सक्षिप्त लूघुसिद्धात गणनाकों विस्तृत कर तीनसो. चेसठ एकातवादी मतोका खडनपूर्वक अनेकात जिनशासनकी ध्वजापताका अन्य प्रवादी लोगोके नभोमडलमे फडकायी । ' वस्तुमे जो जो परिणमन कार्य होता है वह॒ अपने अपने वस्तुस्वभाव-भेदके कारण होता . है ( भन्य तिमित्त के कारण नही ) एसा अन्य श्ञास्त्रोमे न पाये जानेवाला अत्यत गृढ रहस्य सिद्धात आचाय॑े विद्यानन्द स्वामीने स्पप्टतासे उद्योति किया । वह॒ इस प्रकार है, जसे कि- छोटासा बालक भी धनुष्यके ऊकडीको उसके मध्यभागे मूठसे पकडकर उठा सकता है। उस धन्‌येष्टीकों कोई तरुण उसके अग्नभागको भी मुष्टीसे पकड़कर उठा सकता है कोई मल्क उस धनुयष्टीको उसके केवल अग्रभागकों केवछ अपने एक अग्रमागके अगूलीके आधार पर लेंकर उठा सकता है। उसी प्रकार घनुर्ष्टिके स्थानीय जो वस्तुमे स्वाभाविक अपने वस्तुस्वमावके कारण परि- णतिया होती है वे अपने अगुरुलघु नामक शक्तिके कारण अविभाग प्रतिच्छेदोमे पट्‌्स्थान पतित हानि-व॒ृद्धिके कारण अपने अन्तरग निमित्त के कारण ही होती है । बाह्य निमित्त कारण ॥




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