एकाकी | Ekaakii
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
42 MB
कुल पष्ठ :
550
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)` एकाकी ४२
नहीं थी। न्याय, धर्म; नीति ओर कानून--सवके चाद ढंग-छरोंसि उसे
बेहद चिड़ थी ! आजका मानव उसे पशु जचता था, भूखा, ईष्याद्ि,
হিলি । ओर इन सब विचारो ओर विधानोको नष्ट करके वह् नव-
নিলাযক্ষি অল্প देखा करता--विचार-जगतमं ओर भाव-जगतमं । वरद
चाहता था--एक सुन्दर, खस्थ एवं सम्पूण मानवक्रा उदय ! नव-
निर्माणके ये खप्त उसके लिए विश्वास बन जाते ; पर वह अटक जाता
ना, अन्ततः सष्टि-चक्रकी बात सोचकर । यहाँ आकर उसकी घर्घरी
सुल्मनेम नहीं आती थी। यदि यह सारा पसारा ही उद्देश्यहीन है,
अथ-रहित है, यदि मनुष्य मिट्टीके पुतलेसे अधिक कुछ नहीं है, यदि
कालके प्रवाहम सब बह जाता है, अच्छा भी; बुरा भी ; तो ये सारे
आदश, ये सारे खप्न व्यथ हैं। उस नव-निर्माणके मायने क्या, जिसकी
गारन्दी अन्ततः सृष्टि-नियमनके मूठ शिव्यधारोंमें मौजूद नहीं ? कौन
बनेगा उसका ट्रस्टी, उसका संरक्षक ; कोन देगा उसके अवाध्य, अमिट
जीवनकी जमानत ! कोई तो नहीं । तो सब व्यथ है।
वास्तवमे अपने सत्यं शिवं सुन्दरम के आदर्शोको क्रियात्मक रूप
देनेका बीड़ा उटनेके छिए उसे आवश्यकता थी एक्र विचारशील,
न्यायकारी खष्टि-नियन्ता की जो ग्रहं सवं सम्भा दे)! पर बह
सत्ता कँ थी; वह होती तो यह गोख्माढ, यह घुठाला होता ही दर्यों ?
वह यदि नहीं रही, तो आएगी कहाँसे। पर उसके बिना तो कुछ
करना व्यथ है। भला कौन सम्भालेगा पीछेसे यह सब १ प्रदीपके चले
जानेपर उसके नव-निर्माशोंका रखवाला कौन होगा ?
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