श्री भक्त माल | Sri Bhaktmaal

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Sri Bhaktmaal by श्री सीताराम - Shri Sitaram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्िसधास्वाद तिशक | ५ [1 তব পপ পাপা कक, के श्रवशरूपी उपदन के अनमन्तर | योग्य ही हे; तथा दयारूपी अड्भप्रत्नालन ओर नवान ( नग्नता ) रुपी वसन ( वस्ध ) कोआवश्यकता भी शक्ति के और और अनेक ससाधनों से प्रवे ही समझना चाहिये क्योंकि यह तो प्रसिद्ध हो है कि उपठन, स्नान, तथा वन, सब अड्जारों ओर भूषणों से पहिले ही अत्यावश्यकीय हैं। জী “विद्या, बोध विवेक, सुमति ज्ञान, सदगुणअमित श्रीहरिहस अनेक, प्रापि श्रवण” ते. रामहित ॥ यौपाई | मनन विना हे विद्या मार। मननशील” सदगुण आगार॥ विधवदनी समभांति सवारी | सोह न वसन बिना वरनारी। ५. अंशुश्च ( अङ्पचालन )= दया । करुणा से दवना, क्षमा करनी छोह से पधिलना, कृपा से पंसीजना, अहिसा, अनुकम्पा: भलेजुरे जीवभाच्र कै क्लेश्‌ व देख सनके दुखी होना | दो० दया पम्मकों मूल है, यह प्रसिद्ध जगमाहि शाखनिषुण कसोउ कोउ, भक्ति दया बिनु नाहि ४ থাই । “परहित बस जिनके मन माहीं । तिनकट जग दुलभ कहु नदीं ६. वसन ( विर्शद्ध सन्दर अखल वश्च )= नवनि मान अहड्जार अभिमान मदादिवा अमाव; नम्रता प्रणता, दीनता জ্ঞাতব্য, জলা, ছু ही बन्दना दश्वद्‌ द रना दृसरे के प्रणाम नमस्कार क कदापि प्रतीक्षा न करनी. अपनी निचाहं दथमना, अपने दोषों व कदापि न भूना গীত मंणएपति विधाता गुरु जिपुरारि ठमारि तो इश हो हैं, ऋष मुनि मर महिसर गो पिंतर माता पिता तो एज्य हैं ही, किन्तु नरनारी বান্ধব হুল प्रेत और भूतमात्र को प्रणाम वरके उनसे अविरल अमल “आओहरिमक्रि” की मौख मांगनी, भगवत्‌ के अनन्य क्क की शोभा है चौपाई | तब रामहि बिलोकि वेदेही । सभय हदय बिनवति जेहि तेद प्रस प्रसन्न जाना हलुमाना । बोला वचन विगत अभिमाना ॥




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