एकाकी | Ekaakii

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Ekaakii by श्री सीताराम - Shri Sitaram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` एकाकी ४२ नहीं थी। न्याय, धर्म; नीति ओर कानून--सवके चाद ढंग-छरोंसि उसे बेहद चिड़ थी ! आजका मानव उसे पशु जचता था, भूखा, ईष्याद्ि, হিলি । ओर इन सब विचारो ओर विधानोको नष्ट करके वह्‌ नव- নিলাযক্ষি অল্প देखा करता--विचार-जगतमं ओर भाव-जगतमं । वरद चाहता था--एक सुन्दर, खस्थ एवं सम्पूण मानवक्रा उदय ! नव- निर्माणके ये खप्त उसके लिए विश्वास बन जाते ; पर वह अटक जाता ना, अन्ततः सष्टि-चक्रकी बात सोचकर । यहाँ आकर उसकी घर्घरी सुल्मनेम नहीं आती थी। यदि यह सारा पसारा ही उद्देश्यहीन है, अथ-रहित है, यदि मनुष्य मिट्टीके पुतलेसे अधिक कुछ नहीं है, यदि कालके प्रवाहम सब बह जाता है, अच्छा भी; बुरा भी ; तो ये सारे आदश, ये सारे खप्न व्यथ हैं। उस नव-निर्माणके मायने क्या, जिसकी गारन्दी अन्ततः सृष्टि-नियमनके मूठ शिव्यधारोंमें मौजूद नहीं ? कौन बनेगा उसका ट्रस्टी, उसका संरक्षक ; कोन देगा उसके अवाध्य, अमिट जीवनकी जमानत ! कोई तो नहीं । तो सब व्यथ है। वास्तवमे अपने सत्यं शिवं सुन्दरम के आदर्शोको क्रियात्मक रूप देनेका बीड़ा उटनेके छिए उसे आवश्यकता थी एक्र विचारशील, न्यायकारी खष्टि-नियन्ता की जो ग्रहं सवं सम्भा दे)! पर बह सत्ता कँ थी; वह होती तो यह गोख्माढ, यह घुठाला होता ही दर्यों ? वह यदि नहीं रही, तो आएगी कहाँसे। पर उसके बिना तो कुछ करना व्यथ है। भला कौन सम्भालेगा पीछेसे यह सब १ प्रदीपके चले जानेपर उसके नव-निर्माशोंका रखवाला कौन होगा ?




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